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पोषण से वंचित हैं खेतों में अन्न उगाती औरतें

शिवप्रसाद जोशी
२० मई २०२१

खेतीबाड़ी में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को अक्सर उनके सशक्तिकरण से जोड़ा जाता है लेकिन ये विडंबना है कि इस भागीदारी की कीमत उन्हें गिरती सेहत और खराब पोषण से चुकानी पड़ती है. वे खेत से लेकर घर तक जूझती रहती हैं.

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Living Planet | Indien Frauen in der Landwirtschaft
तस्वीर: Murali Krishnan/DW

भारत जैसे कृषिप्रधान देशों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने कृषि सेक्टर को एक नयी ऊंचाई पर पहुंचाया है. अक्सर कृषि के महिलाकरण की बात भी की जाती है. लेकिन इस तथ्य को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है कि महिलाएं कृषि में विभिन्न रूपों में बुनियादी भूमिका निभा तो रही हैं लेकिन इससे उन्हें आखिरकार वांछित लाभ हासिल नहीं हो पाता है. अव्वल तो खेतों में उनकी उपस्थिति किस रूप में है ये देखा जाना जरूरी है, मजदूर के रूप में, कर्मचारी के रूप में या उद्यमी या मालिक के रूप में. ये भी देखे जाने की जरूरत है कि खेतों में काम करने वाली महिलाएं किस समुदाय या जाति या वर्ग से आती हैं. क्योंकि इससे उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का भी पता चल सकता है. खेत में उनका काम करना कोई रुमानियत नहीं है, ये भी देखा जाना चाहिए कि इसमें कितनी इच्छा, लगाव या विवशता छिपी है. भारत जैसे देशों के मामले में अक्सर देखा गया है कि गरीब और वंचित तबकों की महिलाएं पारिवारिक जरूरतों, भरण-पोषण और आर्थिक तंगहाली से निपटने के लिए भी खेतों में काम करती हैं. इस लिहाज से इसे सशक्तिकरण कह देना जल्दबाजी होगी.

खेती में एक तिहाई महिलाएं

खेती में कार्यरत श्रम शक्ति की एक तिहाई संख्या महिलाओं की है. वे अपना 32 प्रतिशत समय खेती के कामों में लगाती हैं. औसतन 300 मिनट वो घर में खाना पकाने, साफसफाई, बर्तन धोने, बच्चों और परिवार की देखभाल समेत बहुत से घरेलू कामों में खर्च करती हैं. लेकिन जब पीक सीजन में खेतों में उनका काम बढ़ जाता है तो वहां वो ज्यादा समय देने लगती हैं. खेती में महिलाओं की व्यस्तता ज्यादा है और पुरुषों जैसी ही है. लेकिन चूंकि उन्हें घर के भी सारे काम करने पड़ते हैं लिहाजा जब खेती में ज्यादा काम के दिन आते हैं तो वहां पूरा समय झोंककर वो अपने लिए घर पर समय नहीं दे पातीं. इसका असर उनके अपने खानेपीने पर पड़ता है. आशय ये है कि खेत में काम से देर शाम घर लौटकर थकी-मांदी महिलाएं अक्सर खाना पकाने में कोताही कर देती हैं या आसानी से तैयार हो जाने वाला भोजन बना लेती हैं. कम समय और कम मेहनत वाला. उसमें जरूरी पोषक तत्वों का अभाव होता है.

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महाराष्ट्र में खेती करती महिलाएंतस्वीर: Murali Krishnan/DW

महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में हुई एक रिसर्च के मुताबिक पीक सीजन में खेती में अधिक व्यस्तता का संबंध पोषक तत्वों में गिरावट से पाया गया है. अध्ययन के मुताबिक जब महिलाएं खेतों में बीजों की रोपाई, गुड़ाई और कटाई में अतिरिक्त समय देती हैं तो इसका असर उनके घर में खाना पकाने की तैयारी पर पड़ता है. महिलाएं इस तरह दोहरी मार झेल रही हैं. खेती में खर्च हुए दस अतिरिक्त मिनटों का अर्थ है शाम का खाना पकाने के समय में चार मिनट की कमी. शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं को खेती से होने वाली आमदनी में सौ रुपये की बढ़त उनकी दिन की कुल कैलोरी में उल्लेखनीय गिरावट से जुड़ी है. आईआईएम अहमदाबाद की वेमीरेड्डी और अमेरिका की कॉरनेल यूनिवर्सिटी में कार्यरत प्रभु पिंगली ने ये अध्ययन किया है.

रोजगार खोने की चिंता

लेबर सेविंग प्रौद्योगिकी के जरिए महिलाओं की हालत में सुधार की बात तो की जा रही है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि ऐसी प्रौद्योगिकियों को लागू करने के बाद महिलाओं को उनके रोजगार से वंचित नहीं किया जाएगा. घर चलाने या घरेलू वित्त खड़ा करने की एक बड़ी चुनौती खेतिहर समुदायों और उनकी महिलाओं में रही हैं.

श्रम की बचत के तरीके खेती में ही नहीं घरेलू कार्यों में ही अपनाए जाने की जरूरत है. पुरुषों के शहरों की ओर माइग्रेशन से अधिक से अधिक महिलाएं खेतों में विभिन्न भूमिकाओं में सामने आ रही हैं, फसल उगाने वालों से लेकर उद्यमी और मजदूरिन तक. लेकिन महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का उन्हें वो उचित हासिल नहीं मिल रहा है जिसकी वो हकदार है. चाहे वो समय की बचत हो, मानदेय में वृद्धि हो या श्रम में बचत से जुड़े उपकरण हों. और अगर वे मिल भी रहे हैं तो उनका परस्पर संबंध नहीं हैं.

लैंगिक भेदभाव भी एक समस्या है. लैंगिक अंतर सबसे अधिक दिखता है जमीन के मालिकाना हक में. महिला जिस जमीन पर खेती करती हैं उसकी मालिक वे नहीं होती हैं. आंकड़ों के मुताबिक 55 फीसदी पुरुष और 73 फीसदी महिलाएं कृषि कामगार हैं, फिर भी करीब 13 प्रतिशत महिलाओं के पास ही अपनी खुद की जमीन है. बाकी उन्हीं जमीनों पर काम करती हैं जिनके मालिक घर के पुरुष सदस्य हैं या बाहर का कोई व्यक्ति है. यूं तो कृषि उत्पादन और किसानों की आजीविका पर जलवायु परिवर्तन का असर देखा ही जाता है लेकिन इसका एक बड़ा पहलू ये भी है कि जलवायु परिवर्तन का ज्यादा असर ग्रामीण महिलाओं पर पड़ता है.

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खेती के अलावा घर का भी कामतस्वीर: Parth Sanyal/REUTERS

पोषण में सुधार जरूरी

अंतरराष्ट्रीय शोध भागीदारी की संस्था, लेवरेजिंग एग्रीकल्चर फॉर न्यूट्रीशन इन साउथ एशिया (लानसा) भी इस बारे में मुख्य मुद्दों को रेखांकित करती आयी है. लानसा के तहत किए गए शोध बताते हैं कि भारत समेत दक्षिण एशिया में महिलाओं का कृषि कार्य, घरेलू गरीबी और अल्प पोषण के बीच एक बड़ा फैक्टर है. शोध के मुताबिक कृषि वर्कफोर्स का फेमिनाइजेशन तो हुआ है लेकिन उसके समांतर पोषण में सुधार नहीं हो पाया है.

सरकार को एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी कि पब्लिक सब्सिडी का कुछ हिस्सा महिला कृषि मजदूरों को मिले और उनके योगदान को पहचान मिले. पैदावार के मूल्य और संबद्ध समर्थन मूल्यों, फसल को दी जाने वाली सब्सिडी में महिला श्रम को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. कृषि से जुड़ी और कृषि विस्तारित सेवाओं को स्त्रियोन्मुखी बनाए जाने की जरूरत भी है. महिला किसानों के हितों को सर्वोपरि रखते हुए जमीन से लेकर उपज तक उन्हें प्राथमिकता मिलनी चाहिए. श्रम की बचत वाली तरतीबें खेतों से लेकर घर तक किए जाने की जरूरत है लेकिन ख्याल रहे कि ऐसा करते हुए महिलाओं से उनका रोजगार न छीन लिया जाए. श्रम में वे बराबर की भागीदार हैं तो उससे मिलने वाले लाभों से भी उन्हें दूर नहीं किया जा सकता है.  

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