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फलस्तीनी ट्रंप पर कैसे भरोसा करें?

अशोक कुमार
१२ सितम्बर २०१८

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप मर्जी के मालिक हैं और किसी की परवाह नहीं करते. जो करना है, वह करते हैं. फिर भी, जिस तरह से वे फलीस्तीनियों के पीछे पड़े हैं, वह हैरान करने वाला है.

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Brasilien Sao Paolo Proteste gegen US-Entscheidung zu Jerusalem
तस्वीर: picture-alliance/ZUMA Wire/C. Faga

यह बात सही है कि इस्राएल और फलस्तीनियों के झगड़े में अमेरिका का झुकाव हमेशा इस्राएल की तरफ ज्यादा रहा है. लेकिन जिस तरह से ट्रंप का अमेरिका लगातार फलस्तीनियों को निशाना बना रहा है, उसकी भी मिसाल नहीं दिखती. 1948 में अस्तित्व में आने वाला यहूदी देश इस्राएल शुरू से ही अमेरिका का बेहद करीबी साझीदार रहा है. लेकिन दशकों से अपने अलग देश के लिए लड़ रहे फलस्तीनियों का हाथ भी अमेरिका ने नहीं छोड़ा था.

फलस्तीनियों को करोड़ों डॉलर की आर्थिक मदद देने के अलावा अमेरिका इस्राएल-फलस्तीनी विवाद के दो राष्ट्रों वाले समाधान के हक में रहा है. इसका मतलब है कि इस्राएल के साथ साथ फलस्तीनियों का भी अपना अलग देश होना चाहिए.

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद सब कुछ बदल गया. फरवरी 2017 में राष्ट्रपति ट्रंप ने दो राष्ट्रों वाले समाधान से पल्ला झाड़ लिया. व्हाइट हाउस में साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्रंप ने कहा कि वह दो नहीं, बल्कि एक राष्ट्र वाले समाधान का समर्थन करेंगे, अगर दोनों पक्ष सहमत हों. यह सुन कर इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू की तो बांछें ही खिल गईं.

देश जो इस्राएल के अस्तित्व को नकारते हैं

कमाल की बात यह है कि ट्रंप यह भी कहना नहीं भूले कि अमेरिका दोनों पक्षों के बीच शांति और शांति समझौते को बढ़ावा देगा जबकि अपने इस बयान से उन्होंने खुद शांति प्रक्रिया की संभावनाओं को सीमित कर दिया. दो राष्ट्रों की जगह अगर सिर्फ एक राष्ट्र की बात होगी तो फिर शांति कैसे हो सकती है?

अमेरिकी नीति में आए इस बड़े बदलाव से फलस्तीनियों को ट्रंप प्रशासन ने पहला बड़ा झटका दिया. लेकिन ट्रंप का अगला कदम इससे भी घातक था. उन्होंने इस्राएल में अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम ले जाने का फैसला किया. दुनिया भर में ट्रंप की खूब निंदा और आलोचना हुई, लेकिन वह कहां किसी की परवाह करते हैं. इस कदम से ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी.

ट्रंप का यह कदम फलस्तीनियों के लिए किसी दुःस्वप्न के सच होने जैसा था, जो येरुशलम के पूर्वी हिस्से को अपने भावी राष्ट्र की राजधानी के तौर पर देखते थे. ट्रंप से पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम ले जाने वाले अध्यादेश को आगे बढ़ाते रहे. लेकिन ट्रंप ने ऐसा नहीं किया और 14 मई 2018 को येरुशलम में अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन किया गया.

इतना ही नहीं, दूतावास के उद्घाटन के लिए वही दिन चुना गया, जब फलस्तीनी लोग 70 साल पहले इस्राएल की स्थापना की पूर्व संध्या पर फलस्तीनी शहरों में बड़े पैमाने हुई हत्याओं का मातम मनाते हैं. इसे वे नकबा यानी 'तबाही' का दिन कहते हैं. ऐसे दिन येरुशलम को इस्राएली राजधानी के तौर पर मान्यता देना फलस्तीनियों के घावों पर नमक छिड़कने जैसा है.

येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के तौर पर मान्यता मिलने का मतलब है कि फलस्तीनियों का 70 साल का संघर्ष बेमायना रहा. ऐसे में, फलस्तीनियों के लिए अमेरिका के साथ शांति प्रक्रिया पर बात करने के लिए ज्यादा कुछ बचा नहीं था. ट्रंप आए दिन ट्विटर पर ताने देने लगे कि फलस्तीनी लोग शांति प्रकिया को लेकर बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं.

इस बीच, अमेरिका से इस्राएल को मिलने वाली सालाना सैन्य मदद 3.1 अरब डॉलर से बढ़ा कर 3.8 अरब डॉलर कर दी गई. दूसरी तरफ फलस्तीनियों को अमेरिकी सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद में लगातार कटौती होती गई. ट्रंप प्रशासन ने फलीस्तीनियों को मिलने वाली लगभग 20 करोड़ डॉलर की मदद रोकी है जिसे वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में आर्थिक विकास, लोकतांत्रिक सुधारों, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, सुरक्षा और मानवीय मुद्दों से जुड़ी परियोजनाओं पर लगाया जाना था.

यहां तक कि फलस्तीनी शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी को अमेरिकी सरकार से मिलने वाली फंडिंग पर पूरी तरह रोक लगा दी गई. यह एजेंसी मध्य पूर्व में फैले लगभग 54 लाख शरणार्थियों के लिए काम करती है और इसका एक तिहाई बजट अमेरिकी फंडिंग से आता था.

तेल अवीव में इस्राएली जायका

अपने ताजा कदम के तहत, ट्रंप प्रशासन ने वाशिंगटन में फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के राजनयिक मिशन को बंद करने का फैसला किया है. इसका मतबल है कि अमेरिका और फलस्तीनियों के बीच आधिकारिक राजनयिक संपर्क का अब कोई जरिया नहीं रहेगा. वाशिंगटन में लाल ईंटों से बनी एक इमारत में 1994 से यह राजनियक मिशन चल रहा था. अमेरिका की पिछली चार सरकारों के दौरान यह मिशन शांति प्रक्रिया के केंद्र में रहा है. लेकिन अब अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इस मिशन पर ताला लगाने का फैसला किया है.

राजनयिक मिशन को बंद करने के फैसले के साथ ही विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि पीएलओ ने शांति प्रक्रिया को लेकर इस्राएल के साथ कोई सार्थक बातचीत नहीं की है. अमेरिका का कहना है कि फलस्तीनी नेता अमेरिकी शांति योजना की निंदा कर रहे हैं जबकि उसे उन्होंने अब तक देखा भी नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि अब तक फलस्तीनियों को लेकर जो रवैया राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनाया है, उसे देखते हुए वे अमेरिकी शांति योजना से भला क्या उम्मीद कर सकते हैं?

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