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फिर सुर्खियों में मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ के मामले

प्रभाकर मणि तिवारी
१९ जुलाई २०१९

सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ में होने वाली हत्याओं के मामलों की सुनवाई के लिए एक नई पीठ के गठन पर सहमति दे दी है. इन हत्याओं को गैर-न्यायिक भी कहा जा रहा है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/Str

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है. इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायमूर्ति एमबी लोकुर दिसंबर में रिटायर हो गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में सीबीआई को सेना व पुलिस की ओर से वर्ष 2000 से 2012 के दौरान कथित मुठभेड़ में 1,528 हत्याओं की जांच का आदेश दिया था. अदालत इस मामले में चुप्पी के लिए मणिपुर सरकार की भी खिंचाई कर चुकी है.

क्या है विवाद

पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर अपने गठन के समय से ही उग्रवादी गतिविधियों के लिए सुर्खियों में रहा है. इस उग्रवाद से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने राज्य में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) लागू कर दिया था. यह कानून पूर्वोत्तर इलाके में तेजी से पांव पसारते उग्रवाद पर काबू पाने के लिए सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देने के मकसद से अस्सी के दशक में बनाया गया था. इसके तहत सुरक्षा बल के जवानों को किसी को गोली मार देने का अधिकार है और इसके लिए उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता. इस कानून के तहत सेना किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट के हिरासत में लेकर उसे अनिश्चित काल तक कैद में रख सकती है. 11 सितंबर, 1958 को बने इस कानून को पहली बार नागा पहाड़ियों में लागू किया गया था जो तब असम का ही हिस्सा थीं. उग्रवाद के पांव पसारने के साथ इसे धीरे-धीरे पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में लागू कर दिया गया. मणिपुर में इस कानून के दुरुपयोग के दर्जनों मामले सामने आते रहे हैं. इस कानून की आड़ में हुए फर्जी मुठभेड़ के मामलों की जांच फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में चल रही है. सामाजिक संगठन अपुनबा लुप के संयोजक दयानंद चिंगथाम कहते हैं, "इस मामले की जांच जल्दी पूरी होनी चाहिए ताकि सुरक्षा बलों के अत्याचारों से परदा उठ सके.”

इस विवादास्पाद कानून के दुरुपयोग के खिलाफ बीते खासकर दो दशकों के दौरान तमाम राज्यों में विरोध की आवाजें उठती रहीं हैं. लेकिन केंद्र व राज्य की सत्ता में आने वाली सरकारें इसे खत्म करने के वादे के बावजूद इसकी मियाद बढ़ाती रही. मणिपुर की महिलाओं ने इसी कानून के आड़ में मनोरमा नामक एक युवती के सामूहिक बलात्कार व हत्या के विरोध में बिना कपड़ों के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था और उस तस्वीर ने तब पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला इसी कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल कर चुकी हैं. लेकिन मणिपुर में इसकी मियाद लगातार बढ़ती रही है. आखिर हार कर शर्मिला ने भी अपनी भूख हड़ताल खत्म कर दी थी. आरोप है कि उक्त कानून के तहत मिले विशेषाधिकारों का लाभ उठा कर सेना व सशस्त्र बलों ने वर्ष 2000 से 2012 के सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ में उग्रवादियों के नाम पर आम लोगों को मार दिया था.

ताजा स्थिति

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वर्ष 2017 से सीबीआई की एक विशेष टीम इन फर्जी मुठभेड़ों की जांच कर रही है. खंडपीठ सुरक्षा बलों की ओर से किए गए कथित फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में कोई कार्रवाई नहीं करने के लिए मणिपुर सरकार की भी खिंचाई कर चुकी है. उसी साल 20 अप्रैल को सेना ने अदालत में कहा था कि जम्मू-कश्मीर व मणिपुर जैसे उग्रवादग्रस्त राज्यों में उग्रवाद-विरोधी अभियानों के लिए उसके खिलाफ एफआईआर नहीं दर्ज की जा सकती. सेना की दलील थी कि उक्त राज्यों में उसके खिलाफ होने वाली न्यायिक जांच निष्पक्ष नहीं होती. उसी समय केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि हर सैन्य अभियान के मामले में सेना की बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता. सेना के खिलाफ हर मामले में न्यायिक जांच नहीं की जा सकती. केंद्र की दलील थी कि मणिपुर में होने वाली मौतें गैर-न्यायिक या फर्जी मुठभेड़ों के दौरान नहीं बल्कि सेना के उग्रवाद-विरोधी अभियानों के दौरान हुई हैं.

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इरोम शर्मिलातस्वीर: picture-alliance/dpa

सेना की दलील रही है कि स्थानीय स्तर पर जिला जजों की ओर से की जाने वाली कथित मुठभेड़ों में हुई मौतों की न्यायिक जांच अक्सर सेना के खिलाफ जाती है. इसकी वजह है कि स्थानीय होने की वजह से जजों को स्थानीय मुद्दों व हालात का भी ध्यान रखना होता है. इस मामले में विभिन्न मानवाधिकार संगठनों ने अदालत को बताया था कि मौत के 265 मामलों की जांच जरूरी है. इन संगठनों ने विभिन्न न्यायिक आयोगों की जांच रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि उनमें सेना के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने इन 265 मामलों में से सेना से जुड़े मामलों को अलग करने का निर्देश दिया था. उसके बाद केंद्र ने अपने हलफनामे में बताया था कि उन 265 मामलों में से 70 सेना व असम राइफल्स से संबंधित हैं और बाकी राज्य पुलिस से.

उससे पहले वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि किसी भी कानून के तहत सुरक्षा बल के अधिकारियों व जवानों को सजा से पूरी तरह छूट की अवधारणा सही नहीं है. उनकी किसी भी गतिविधि को आपराधिक अदालत में चुनौती दी जा सकती है. वैसे, अफस्पा अपने जन्म के समय से ही विवादों में रहा है. अक्सर इसके प्रावधानों के दुरुपयोग की शिकायतें सामने आती रही हैं. खासकर मणिपुर में इसके खिलाफ आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है. मेघालय में बीते साल इसे हटा लिया गया था. लेकिन मणिपुर और असम के अलावा अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में अब भी यह लागू है.

लंबा है बगावत का इतिहास

दरअसल, मणिपुर में बगावत का इतिहास इस राज्य के गठन जितना ही पुराना है. देश की आजादी के समय राज्य के लोग भारत में विलय के इच्छुक नहीं थे. वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद मणिपुर के महाराजा ने इसे एक संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया और यहां अपनी संसद के लिए चुनाव कराया. लेकिन दो साल बाद यानी वर्ष 1949 में महाराजा भारत में इसका विलय करने पर सहमत हो गए. हालांकि स्थानीय मैती समुदाय के नेताओं का दावा है कि महाराजा पर इसके लिए भारी दबाव डाला गया था. मणिपुर को वर्ष 1963 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला. आखिरकार वर्ष 1972 में इसे पूर्ण राज्य बना दिया गया. मणिपुर में भारत सरकार के किलाफ बगावत की शुरुआत वर्ष 1964 में ही शुरू हो गई थी. उस समय आजादी के लिए यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) नामक उग्रवादी संगठन ने भूमिगत आंदोलन शुरू किया था. उसके बाद सत्तर के दशक में दर्जनों दूसरे उग्रवादी संगठन भी पनप गए.

अब भी राज्य में छोटे-बड़े कोई तीन दर्जन ऐसे संगठन सक्रिय हैं. उनको दबाने के लिए ही यहां अफस्पा लागू किया गया. लेकिन अक्सर इसके दुरुपयोग के आरोप सामने आते रहे हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जारी सीबीआई जांच से कथित फर्जी मुठभेड़ों में हजारों लोगों की हत्या के रहस्य से परदा उठने की संभावना है. यही वजह है कि केंद्र व राज्य सरकारें और सेना अपनी ओर से तमाम दलीलें देकर बचने का प्रयास कर रही हैं. फिलहाल सात महीने से सुप्रीम कोर्ट में इसकी प्रगति रिपोर्ट पर सुनवाई बंद है. अब नई पीठ के गठन के बाद इस जांच में तेजी आने की उम्मीद है. स्थानीय अखबार इरपेक के संपादक अरुण इरंगेबाम कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट की पहल सराहनीय है. इस मामले को शीघ्र निपाटाया जाना चाहिए ताकि पीड़ितों को न्याय मिल सके.”

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