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बिहार में बच्चों की मौतों के लिए वाकई लीची जिम्मेदार?

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ जून २०१९

लीची को एक बेहद मीठा और गुणकारी फल माना जाता है. लेकिन बिहार में यही लीची दो महीने से लेकर पंद्रह साल तक के बच्चों के लिए कथित रूप से जानलेवा साबित हो रही है.

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Bangladesch Litschies Ernte Kind
तस्वीर: DW/M. Mamun

राज्य के 12 जिलों में इस वजह से होने वाली एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिन्ड्रोम (एईएम) के चलते 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है. स्थानीय भाषा में इसे चमकी बुखार कहा जा रहा है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने रविवार को सबसे प्रभावित मुजफ्परपुर जिले के अस्पतालों का दौरा किया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बीमारी से मारे गए बच्चों के परिजनों को मुख्यमंत्री राहत कोष से चार-चार लाख रुपये मुआवजा देने का एलान किया है. विशेषज्ञों ने महामारी बनती इस बीमारी के लिए मुजफ्फरपुर में पैदा होने वाली लीची को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन स्वास्थ्य विशेषज्ञों में इस पर आम राय नहीं है. इस बीमारी को देखते हुए पड़ोसी झारखंड में भी हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है.

खाली पेट लीची खाने से?

इस बुखार का सबसे ज्यादा असर लीची का कटोरा कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर में सामने आया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 2017 में तीन लाख मीट्रिक टन लीची की पैदावर हुई थी. पूरे देश को लीची की ज्यादातर सप्लाई इसी इलाके से की जाती है. अकेले इसी जिले के श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज अस्पताल और केजरीवाल अस्पताल में लगभग 80 बच्चों की मौत हो चुकी है. इसके लक्षणों में तेज बुखार के अलावा उल्टी, दौरे पड़ना और बेहोश होना शामिल है. अस्पतालों में लगातार बढ़ती इन मौतों ने बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की भी पोल खोल दी है.

राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने बीते सप्ताह ही एक सर्कुलर जारी कर अभिभावकों को खाली पेट बच्चों को लीची नहीं खिलाने की सलाह दी थी. स्वास्थ्य विभाग ने भी कहा है कि बच्चों को कच्ची या अधपकी लीची नहीं खाने देनी चाहिए. विशेषज्ञों का कहना है कि लीची में मौजूद कुछ केमिकल 15 साल से कम उम्र के बच्चों के दिमाग में सूजन बढ़ा देते हैं. लीची के अभियुक्त बनने से उसकी कीमतें तेजी से गिरी हैं. इससे उन हजारों परिवारों को बच्चों पर भी असर पड़ रहा है जो आजीविका के लिए लीची की खेती पर ही निर्भर हैं.

दरअसल, इलाके में मई और जून के महीने में लीची पकने लगती है. इस दौरान खासकर लीची की खेती करने वाले परिवारों के बच्चे बागानों में घूमते समय सुबह से ही लीची खाने लगते हैं. इसी से लीची खाने से बीमारी फैलने की थ्योरी को बल मिला है. बावजूद इसके कुछ सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं. मिसाल के तौर पर 2011 में मुजफ्फरपुर में पहली बार इस बीमारी का प्रकोप सामने आया था. तब छह महीने के बच्चों की भी मौत हो गई थी. इस सवाल का भी जवाब नहीं मिल सका है कि एक ही परिवार के कुछ बच्चों को तो यह बीमारी हो जाती है लेकिन कुछ पर इसका कोई असर नहीं होता.

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बंटी हुई है राय

क्या इन मौतों के लिए लीची जिम्मेदार है? इस सवाल पर विशेषज्ञों में आम राय नहीं है. लीची को बेहद गुणकारी फल माना जाता है. लेकिन विशेषज्ञों के एक गुट का कहना है कि इसमें कुछ जहरीले तत्व भी मौजूद होते हैं जो खाली पेट सेवन की स्थिति में बच्चों के दिमाग पर असर डालते हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक पूरे दिन अधपकी या कच्ची लीची के सेवन से बच्चों के खून में ग्लूकोस का स्तर गिर जाता है. चिकित्सा की भाषा में इसे हाइपोग्लाइसीमिया कहा जाता है. 2017 में प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लेंसेट में छपे एक लेख में शोधकर्ताओं ने कहा था कि बच्चों की मौत की वजह फसलों का संक्रमण या उसमें मौजूद कीटनाशक नहीं हैं.

मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के बाल रोग विभाग के प्रमुख डॉ. गोपाल शंकर साहनी कहते हैं, "अगर ऐसा होता तो लीची की पैदावार वाले तमाम इलाकों में इस बीमारी का असर देखने को मिलता, सिर्फ मुजफ्फरपुर व आस-पास के इलाको में ही नहीं." वह कहते हैं कि लगातार बढ़ता तापमान और और हवा में बढ़ी आर्द्रता की मात्रा ही चमकी बुखार के लिए जिम्मेदार है. ऐसे मौसम में जानलेवा बीमारियां तेजी से फैलती हैं. विशेषज्ञों के इस गुट की दलील है कि अगर लीची ही इस बीमारी की वजह होती तो हर साल इतनी ही बड़ी तादाद में मौतों होनी चाहिए थीं. लेकिन 2014 में जहां एईएस के 1028 मामले सामने आए थे, वहीं 2015 में 390 मामले. अगले दो सालों के दौरान इस तादाद में भारी गिरावट आई. 2016 में ऐसा महज एक मामला सामने आया था जबकि 2017 में यह तादाद 17 थी.

मौत के कारणों की जांच के लिए बीते सप्ताह केंद्र सरकार के स्वास्थ्य विशेषज्ञों की एक सात-सदस्यीय टीम ने इलाके का दौरा किया था. बिहार के स्वास्थ्य अधिकारियों का दावा है कि तमाम मौतें हाइपोग्लाइसीमिया की वजह से हुई हैं. हाइपोग्लाइसीमिया में इंसान के शरीर में शुगर की कमी हो जाती है. अधिकारियों के मुताबिक शुगर की कमी की वजह बढ़ती गर्मी है.

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सियासत भी तेज

रविवार को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के सामने ही दो बच्चियों की मौत हो गई. हर्षवर्धन ने मेडिकल कॉलेज अस्पताल के दौरे के बाद पत्रकारों से कहा, "इस समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकार को सभी संभव आर्थिक और तकनीकी सहयोग देगी." उन्होंने कहा कि बिहार के पांच जिलों में वायरोलॉजी लैब स्थापित करना जरूरी है. मंत्री ने एईएस की रोकथाम के लिए मुजफ्फरपुर में एक आधुनिकतम रिसर्च सेंटर की स्थापना का भी भरोसा दिया है और दावा किया है कि यह काम एक साल में पूरा हो जाएगा. केंद्रीय मंत्री ने श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के आईसीयू पर नाराजगी जताते हुए वहां कम से कम सौ बिस्तरों वाला आईसीयू बनाने का भी निर्देश दिया है.

इसबीच बच्चों की मौतों पर राज्य में सियासत भी तेज हो गई है. विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने बीडेपी और जद (यू) सरकार पर बच्चों की मौतों को गंभीरता से नहीं लेने का आरोप लगाया है. अपने आरोप के समर्थन में पार्टी ने एक फोटो ट्वीट करते हुए दावा किया है कि इस मुद्दे पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन की प्रेस कांफ्रेस के समय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अशिवनी चौबे खर्राटे ले रहे थे. दूसरी ओर सीएम नीतीश कुमार ने बच्चों की मौत पर गहरा दुख जताते हुए प्रभावित लोगों को चार-चार लाख रुपये की सहायता देने का एलान किया है. लेकिन विपक्षी दलों का कहना है कि महज मुआवजे से समस्या को खत्म नहीं किया जा सकता.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार में हर साल इस मौसम में ऐसी रहस्यमय बीमारी सैकड़ों बच्चों को लील लेती है. लेकिन बाद में सरकार इस घटना को भूल जाती है. कोलकाता के एक शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. एसबी मुखर्जी कहते हैं, "बीमारी के लिए महज लीची को जिम्मेदार ठहरा कर हाथ झाड़ लेने से समस्या हल नहीं होगी. जरूरत है इस बीमारी की सही वजहों का पता लगा कर उनको दूर करने की. इसके साथ ही स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे को भी दुरुस्त करना होगा. ऐसा नहीं होने तक बिहार में बच्चों की मौत का सिलसिला जारी ही रहेगा."

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