1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बिहार: रैली में आई भीड़ को वोटों में बदल पाएगी कांग्रेस?

समीरात्मज मिश्र
४ फ़रवरी २०१९

बिहार में कांग्रेस ने अकेले दम पर करीब तीन दशक बाद कोई रैली की जिसे राहुल गांधी ने संबोधित किया. रैली में आई भीड़ से पार्टी नेता काफी गदगद हैं लेकिन क्या रैली में आई भीड़ कांग्रेस के लिए वोटों में तब्दील होगी?

https://p.dw.com/p/3Cf4j
Indien, Mumbai: 
Unterstützer von Indiens Oppositionspartei protestieren in der Nähe des Central Bureau of Investigation (CBI)
तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

कांग्रेस पार्टी की इस रैली में हाल ही में तीन राज्यों में बने पार्टी के नए मुख्यमंत्री तो शामिल हुए ही, रैली को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी संबोधित किया. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के निशाने पर सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे.

दरअसल, हाल ही में तीन राज्यों में हुई कांग्रेस पार्टी की जीत और उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की राजनीति की औपचारिक शुरुआत के बाद पार्टी कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं.

यह ठीक है कि बिहार में पिछले तीस साल से ना तो कांग्रेस पार्टी की सरकार रही है और ना ही उसे लोकसभा और विधानसभा में कोई खास सफलता मिली है बल्कि स्थिति यहां तक आ गई थी कि उसे आरजेडी जैसी पार्टियों से ना सिर्फ उनकी शर्तों पर समझौता करना पड़ा, बल्कि उन्हीं की सिफारिश पर बिहार में सभी सीटों पर चुनाव भी लड़ना पड़ सकता है.

कितने राज्यों में अभी कांग्रेस की सरकारें हैं

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की जो स्थिति है, बिहार में कम से कम उससे तो अच्छी ही है. लेकिन पार्टी को उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी को राजनीतिक रण में उतारने के बाद जिस तरह से प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं, उससे पार्टी के नेता खासे उत्साहित हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने सभी सीटों पर अकेले लड़ने का आह्वान किया है, जबकि बिहार में भी पार्टी कुछ ऐसा ही करना चाहती है.

हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह कहते हैं, "उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस पार्टी को खोने के लिए कुछ है नहीं, इसलिए वो कोई भी प्रयोग कर सकती है. जहां तक बिहार में अकेले चुनाव लड़ने वाली बात है तो 1989 से पहले तो कांग्रेस अकेले ही लड़ती थी और राज्य में सरकार बनाती थी जबकि उसके बाद उसने गठबंधन बनाना शुरू किया और लगातार उसकी सीटें कम होती गईं.”

जानकारों के मुताबिक, साल 1989 में हुए भागलपुर दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय छिटक गया. वहीं हिंदुओं में भी कांग्रेस की नीतियों को लेकर नाराजगी रही. दूसरी ओर, यही वह समय था जब देश भर में मंडल और कमंडल की राजनीति चल रही थी और कांग्रेस पार्टी दोनों ही मामलों में लगभग दिग्भ्रमित रही.

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, कांग्रेस न तो मुस्लिम मतों को खुद से दूर होने से रोक पाई और न ही दलित और सवर्ण मतों को. उसके दलित और पिछड़े वोट धीरे-धीरे राष्ट्रीय जनता दल और कुछ अन्य छोटी-मोटी पार्टियों की ओर जाते रहे, मजबूत होने के कारण अल्पसंख्यक समुदाय भी इन्हीं दलों की ओर आ गया और कांग्रेस को राज्य की सत्ता से लंबे समय तक बाहर रहना पड़ा.

प्रियंका गांधी को जानिए

वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, "यही वह दौर था जब लालू यादव के एम-वाई समीकरण यानी मुस्लिम-यादव समीकरण ने जन्म लिया और बिहार की राजनीति में आरजेडी ने अपना स्थान तय कर दिया. जो कांग्रेस कभी राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती थी, वह गठबंधन के बावजूद विधानसभा की मात्र 27 सीटें जीत पा रही है. यही नहीं, उसे आरजेडी से गठबंधन करके बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ रही है.”

मौजूदा समय में कांग्रेस की स्थिति यूपी की तरह बिहार में भी है. उसके सामने सीट जीतने से ज्यादा से राज्य भर में अपने संगठन को मजबूत करने की चुनौती है. जानकारों के मुताबिक, कांग्रेस पार्टी ने इसीलिए रैली करने का फैसला किया और अपनी ताकत दिखाने की कम, आंकने की ज्यादा कोशिश की. पटना के गांधी मैदान में हुई इस रैली में मौजूद पत्रकारों और अन्य लोगों की मानें तो रैली ‘सफल' रही.

उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी ने अपने गठबंधन में कांग्रेस पार्टी को शामिल नहीं किया. हालांकि कांग्रेस पार्टी के लोगों की मानें तो कांग्रेस खुद गठबंधन में शामिल नहीं हुई और इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यही बताई गई कि पार्टी राज्य की सभी सीटों पर लड़कर अपने संगठन को तो मजबूत करेगी ही, कम से कम उतनी सीटें भी जीत लेगी जितनी कि उसे गठबंधन में मिल रही हैं.

BG Indien Priyanka Gandhi
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

बिहार में हालांकि आरजेडी से कांग्रेस का गठबंधन पुराना है और अब तक उसमें किसी तरह के दरार की भी खबर नहीं है, बावजूद इसके कांग्रेस पार्टी बिहार में भी यूपी की राह चल सकती है. जानकारों के मुताबिक, यहां भी ठीक वही तर्क काम कर रहा है जो उत्तर प्रदेश में था.

जानकारों का यह भी कहना है कि आरजेडी गठबंधन से कांग्रेस पार्टी को नुकसान ज्यादा फायदा कम मिला है. झारखंड के अलग होने के बाद साल 2005 में हुए पहले चुनाव में कांग्रेस पार्टी को बिहार में बड़ा झटका लगा जब उसके सिर्फ पांच प्रत्याशी चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंच पाए थे. 2010 में एक सीट और कम हो गई लेकिन 2015 में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ 41 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसके 27 विधायक चुने गए.

लेकिन सवाल उठता है कि बीजेपी-जदयू गठबंधन, आरजेडी की मजबूत उपस्थिति और कुछ अन्य दलों की मौजूदगी के बाद कांग्रेस पार्टी के लिए बिहार में बचा क्या है? पटना में लंबे समय से राजनीतिक खबरों को कवर कर रहे अतुल शर्मा कहते हैं, "इस तरह से देखेंगे तो कांग्रेस के पास सच में कुछ नहीं बचा है, सिवाय उसके कुछ परंपरागत मतों के. लेकिन यहां यह भी देखना होगा कि इन दलों से नाराज कार्यकर्ता, विकल्प के अभाव में इन्हीं में से किसी एक को चुनने को विवश मतदाता और अल्पसंख्यक समुदाय को सबसे ज्यादा भरोसा कांग्रेस पार्टी में ही होगा यदि कांग्रेस यहां खुद को मजबूत तरीके से पेश कर सके.”

पिछले कुछ समय से यह देखने में आया है कि बिहार में कांग्रेस पार्टी का राज्य में काफी विस्तार हुआ है. कई नेता दूसरे दलों से आकर कांग्रेस में शामिल हुए हैं और तमाम अभी शामिल होने का प्रयास कर रहे हैं. जानकारों के मुताबिक, यदि पार्टी लोगों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब हो सकी तो निश्चित तौर पर उसके कुछ पाने की संभावना बढ़ जाएगी.

तीन तारीख की जन आकांक्षा रैली वैसे तो कांग्रेस ने अकेले आयोजित की थी लेकिन अन्य विपक्षी दलों को भी इसमें आमंत्रित किया गया था और तेजस्वी यादव समेत दूसरे दलों के कई नेता पहुंचे भी थे. यही नहीं, राहुल गांधी ने रैली में साफतौर पर कहा भी कि वह बिहार में गठबंधन के साथ ही चुनाव लड़ेंगे. लेकिन पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक, "इस रैली के जरिए कांग्रेस पार्टी ने अपने विरोधियों को तो अपनी ताकत का अहसास कराने की कोशिश की ही है, गठबंधन के साथियों को भी इसके जरिए एक बड़ा संदेश दिया है.”

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी