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समाज

बूंद बूंद पानी बचाने की जद्दोजहद

शिवप्रसाद जोशी
२१ मार्च २०१८

22 तारीख को अंतरराष्ट्रीय जल दिवस है. युद्ध, हिंसा और आपदा से जूझ रही दुनिया अब जल संकट से भी त्रस्त है. भारत को यूं तो जलसंपन्न देश माना जाता है लेकिन हालात नहीं सुधरे वह वो जल-विपन्न भी हो सकता है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Kanojia

पानी के अंतरराष्ट्रीय दिवस की घोषणा ब्राजील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतरराष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया. 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था.  इसी दशक के साए में पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में रही. दुनिया के और देशों में भी हलचल है जिनके कई शहर पानी की कमी से जूझ रहे हैं. भारत भी इनमें से एक है जहां बंगलुरू शहर का नाम जलसंकट में सबसे ऊपर बताया गया है.

भारत के बुरे हालात

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है. और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं. वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है. भारत में ये दर क्रमशः 90, सात और तीन है. भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं, नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है. ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है.

वॉटरऐड संस्था की 2016 में आई एक रिपोर्ट में भारत को साफ पानी के अभाव से सबसे ज्यादा ग्रस्त लोगों वाले देशों में जगह मिली थी. भारत में पानी की दुर्दशा चौंकाने वाली है, जबकि वह पानी की कमी वाला देश नहीं है. नदियां तो जो हैं सो हैं, 1170 मिलीमीटर औसत सालाना बारिश भी मिलती है. समस्या यही है कि जल संरक्षण, जल स्रोतों के प्रदूषण की रोकथाम और पानी के समुचित इस्तेमाल को लेकर न कोई संवेदनशीलता है न कारगर नीति. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में दो तिहाई ग्रामीण जिले अत्यधिक जल ह्रास की चपेट में हैं, इन जिलों में जल स्तर पिछले 20 साल में चार मीटर गिर गया है.

आंकड़े क्या कहते हैं

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है. विभिन्न देशों में यह मानक बदलते रहते हैं. लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 89 से 90 लीटर प्रतिदिन है. 2050 तक इस दर के प्रति व्यक्ति 167 लीटर प्रतिदिन हो जाने का अनुमान है. अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा. 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा.

प्रति व्यक्ति 1000 से 1700 घन मीटर पानी की उपलब्धता को 'स्ट्रेस' का दर्जा दिया जाता है. अगर यह प्रति व्यक्ति 1000 घन मीटर या उससे कम हो जाए, तो पानी की कमी मान ली जाती है. भारत के हालात और वर्षाजल के औसत, भूजल के स्तर को देखते हुए माना जाता है कि 2020 तक भारत जल दबाव की स्थिति में होगा और 2025 तक पानी की कमी की चपेट में. पानी की संभावित कमी का असर, खाद्यान्न उत्पादन, बाल विकास और कुल वृद्धि के अन्य संसाधनों और उपायों पर पड़ेगा.

किसी को चिंता नहीं

अच्छी खासी मात्रा में बारिश होने के बावजूद भारत सिर्फ छह फीसदी वर्षा जल का ही संग्रहण कर पाता है, जबकि दुनिया के कई देशों में यह दर 250 फीसदी की है. रेनवॉटर हारवेस्टिंग को लेकर कुछ जागरूकता तो इधर दिखी है, चुनिंदा आवास परियोजनाएं इस ओर ध्यान दे रही हैं लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर मुस्तैदी का अभाव है. और तो छोड़िए घरों में साफ और संक्रमण रहित पानी के लिए जो आरओ सिस्टम लगे हैं, उनसे भी बहुत सा पानी बेकार चला जाता है. उस पानी का उपयोग भी संभव है लेकिन इसे लेकर आमतौर पर कोई जागरूकता बहुत से मध्यमवर्गीय शहरी परिवारों में नहीं है. तो न सरकार को चिंता है, न नौकरीपेशा मध्यवर्ग, न बिजनेस क्लास, न जल संरक्षण परियोजनाएं चलाने वालों को.

भूजल का बड़े पैमाने पर दोहन घरों से लेकर उद्योगों तक, विभिन्न वजहों से किया जा रहा है. हाल के दिनों में केरल और उत्तर प्रदेश में सॉफ्ट ड्रिंक कोला के प्लांटों द्वारा भूजल के दोहन और प्रदूषण को लेकर आंदोलन हो चुके हैं, इस पर कोर्ट के आदेश भी हैं और निगरानी की व्यवस्था है.

लेकिन यह समस्या सिर्फ ऐसे प्लांटों की वजह से ही नहीं है - पहाड़ों और घाटियों में निर्मित और निर्माणाधीन बड़े बांध, नदियों के जलस्तर में कमी या बदलाव, बेहिसाब खनन और खुदाई, जंगलों की आग, सूखा, अनियंत्रित बाढ़, भीषण औद्योगिकीकरण, शहरी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण, प्लॉटों और बाजारों में बदलती खेती की जमीनें, वाहनों की बेशुमार भीड़ और बढ़ता प्रदूषण, अपार्टमेंटों, कॉलोनियों और आबादी का अत्यधिक दबाव - ये सब मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड़पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर आदि विलुप्त हो रहे हैं और भूजल सूख रहा है. ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी घटनाओं ने पहाड़ों से मैदानों तक, शहरों से गांवों तक पारिस्थतिकीय और पर्यावरणीय संतुलनों को उलटपुलट कर दिया है.

क्या बदलेगी स्थिति

और कैसी विडंबना है, सत्ता राजनीति के विमर्शों और समूची राजनीतिक लड़ाइयों से यह मुद्दा गायब है. अभी हाल में किसानों का नासिक से मुंबई का ऐतिहासिक मार्च, सिर्फ खेती-किसानी के संकट को संबोधित नहीं था, वह तमाम प्राकृतिक संसाधनों और गहराते जल संकट पर भी एक स्पष्ट संदेश था. पानी के संकट से निपटने के लिए भारीभरकम मंत्रालय है, सरकारी अमला है, स्वयंसेवी संगठन हैं, संयुक्त राष्ट्र और वर्ल्ड बैंक की वित्तपोषित योजनाएं हैं, नमामि गंगे जैसी विराट बजट वाली नदी सफाई परियोजनाएं हैं, लेकिन इतने भर से तो हालात नहीं सुधरने वाले.

22 मार्च को अंतराष्ट्रीय जल दिवस या 14 अप्रैल को राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में मनाते हुए भारत को जल संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण अभियान, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की नीतियों में सुधार या बाढ़ प्रबंधन को दुरुस्त करना ही काफी नहीं है. पानी के उपयोग से जुड़ी सामाजिक रूढ़ियों और जातिगत अंतर्विरोधो से भी निपटने की जरूरत है. पानी का संबंध शक्ति संरचना और सामाजिक संबंधों से नहीं हो सकता, उस पर सबका अधिकार है. वरना दिल्ली जैसी घटनाएं भी रोकी नहीं जा सकेंगी जहां पिछले दिनों एक बस्ती में पानी को लेकर मची छीनाझपटी में दलित वृद्ध को लोकल दबंगो ने पीट पीटकर मार डाला.