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बेघरों का आइकिया आशियाना

१६ जुलाई २०१३

युद्ध का मैदान हो या भूकंप की त्रासदी. आम तौर पर बेघर हुए लोगों के लिए सफेद रंग का तंबू नजर आता है, जो संयुक्त राष्ट्र की पहचान है. लेकिन अब यह पहचान बदलने वाली है, क्योंकि तंबू ज्यादा दिन टिकते नहीं.

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तस्वीर: IKEA Foundation

संयुक्त राष्ट्र स्वीडन के विशालकाय फर्नीचर कंपनी आइकिया के साथ ज्यादा स्थायी आशियाने बनाने की तैयारी कर रहा है. पहली खेप इथियोपिया में लगाई गई है, जहां इसकी टेस्टिंग हो रही है.

परंपरागत सफेद टेंटों को सूरज की गर्मी और बरसात के पानी से रहम की दरकार होती है और आम तौर पर वे छह महीने में फट जाते हैं. संयुक्त राष्ट्र में शरणार्थी आयोग की प्रवक्ता रोको नूरी का कहना है, "उन्हें इमरजेंसी के लिए डिजाइन किया गया था."

UNHCR Flüchtlingslager Zelte Äthiopien
यूएन शरणार्थी संगठन का कैंपतस्वीर: picture-alliance/dpa

नूरी का कहना है कि इन सफेद टेंटों से समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा था. खास तौर पर रात में निजता नहीं दी जा पा रही थी. हल्की रोशनी में भी साए साफ दिखते थे, जो कुछ संस्कृतियों में स्वीकार नहीं किए जा सकते.

बदलेगा आशियाना

नूरी का कहना है कि इसके अलावा उनमें गर्मी और सर्दी से बचाव के उपाय भी नहीं थे, "ये सर्दियों में बहुत ठंडे और गर्मियों में बहुत गर्म हो जाते हैं. अब यह सही तरीका नहीं रह गया है." उनका कहना है कि कई बार बेघरों को लंबा वक्त इन तंबुओं में बिताना पड़ता है. स्वीडन की एक संस्था रिफ्यूजी हाउसिंग यूनिट इसे बदलना चाहती है.

काम शुरू करने के लिए इथियोपिया के डोलो एडो कैंप को चुना गया है. शरणार्थियों के एक जत्थे के लिए इन नए केबिनों को लगाया गया है. इन्हें पिछले तीन साल में रिफ्यूजी हाउसिंग यूनिट की देख रेख में तैयार किया गया है. इस संस्था को आइकिया ही वित्तीय मदद देती है. इस प्रोजेक्ट में अब तक करीब 45 लाख डॉलर का निवेश किया जा चुका है. आइकिया के लिए यह काम बहुत मुश्किल नहीं रहा होगा, जो किफायती अलमारी और दराज बनाने का काम करती है. यूरोप भर में इसकी लोकप्रिय शाखाएं हैं और जल्द ही यह भारत में भी दस्तक देने वाली है.

Flüchtlingslager Kigeme in Ruanda
जल्दी फट जाते हैं तंबूतस्वीर: AFP/Getty Images

जून के आखिर में यूएन की शरणार्थी मामलों की संस्था ने डोलो एडो में इन केबिनों को पहुंचाया. एक केबिन का वजन लगभग 100 किलो है. इस इलाके में सोमालिया से आए करीब 1900 लोग रह रहे हैं. दो मजबूत कद काठी के लोग एक केबिन के पुर्जों को आसानी से ढो सकते हैं. इसकी दीवारें हल्की धातुओं और प्लास्टिक से तैयार की गई हैं, जिनमें धातु की तारें भी लगी हैं. आइकिया के किसी भी फर्नीचर की तरह इसे भी जोड़ते वक्त बहुत ध्यान रखना पड़ता है और हर पुर्जे को निर्देश के मुताबिक ही लगाना पड़ता है.

मुश्किल है फैसला

जर्मन शहर वाइमार की बाउहाउस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डिर्क डोनाथ का कहना है कि पुराने सफेद टेंटों के मुकाबले नई केबिनें बहुत ज्यादा टिकाऊ हैं. हालांकि वे इसे बेहद कृत्रिम और आयात किए गए घर बताते हैं. वह पांच साल से अदीस अबाबा में गरीबों को आसरा देने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं.

वह भी यूएन की उस प्रोजेक्ट का हिस्सा रह चुके हैं, जिसमें इन टेंटों के बदले नए विकल्प तलाशने की बात थी. प्रोफेसर डोनाथ का मानना है कि स्थानीय मैटिरियल और तकनीक के आधार पर इसका हल खोजना चाहिए, "हमने अनाज की बोरियों में रेत भर कर भी घर तैयार किए हैं."

IKEA Foundation Flüchtlingsunterkunft
आइकिया के नए घरतस्वीर: IKEA Foundation

हालांकि उनकी इस कोशिश को ज्यादा समर्थन नहीं मिल पाया है. उनका कहना है कि मिट्टी, बांस और सीमेंट ब्लॉक अब इस्तेमाल में नहीं हैं और इनकी जगह प्लास्टिक और शीशे ने ले ली है.

शुरू शुरू की दिक्कत

वह दो बार डोलो एडो कैंप का दौरा कर चुके हैं और कहते हैं कि वहां से बहुत उत्साह वाली खबर नहीं है. कई लोग नई केबिन तैयार करने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं और कई लोग बहुत पैसों की मांग कर रहे हैं.

लेकिन प्लास्टिक की इन केबिनों की खासियत है कि ये कम से कम तीन साल तक चलेंगे और सोलर पैनल की मदद से इनमें बिजली भी लगाई जा सकेगी. कीमत करीब 1000 यूरो है, जो टेंट से भी कम है.

और सबसे बड़ी बात कि यह किसी तंबू की तरह नहीं बल्कि घर की तरह दिखेगा, जिसमें प्राइवेसी भी हो सकेगी.

रिपोर्टः यूलिया मानके/एजेए

संपादनः महेश झा

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