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समाज

भारत में दूध की गुणवत्ता में सुधार का दावा

शिवप्रसाद जोशी
२२ अक्टूबर २०१९

ताजा सर्वे में खास बात यह है कि पहले के मुकाबले ज्यादा सैंपलों की जांच की गयी, सभी चार क्वॉलिटी पैरामीटर परखे गए और मिलावटी और संक्रामक पदार्थों की जांच भी की गई.

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Symbolbild - Milch
तस्वीर: Colourbox

भारत में दूध की गुणवत्ता को लेकर संदेह, सवाल और असमंजस की स्थिति रही है, खुद सरकारी जांच कार्रवाइयों में सवाल उठते रहे हैं. लेकिन इस बार खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच करने वाली केंद्रीय एजेंसी FSSAI का दावा है कि देश में बिकने वाला अधिकांश दूध सही है.

फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथोरिटी ऑफ इंडिया ने पिछले दिनों राष्ट्रीय दुग्ध सुरक्षा और गुणवत्ता सर्वे 2018 जारी किया था जिसके मुताबिक दूध के 90 प्रतिशत से अधिक सैंपल इस्तेमाल के योग्य पाए गए हैं लेकिन जो खराब निकले उनमें 41 प्रतिशत ऐसे भी हैं जो मानकों पर पूरे खरे नहीं उतरते. उनमें क्वॉलिटी के पैरामीटरों में कुछ न कुछ कमी जरूर है. उनमें एफ्लाटोक्सिन-एम1, कीटनाशक और एंटीबायोटिक पाए गए हैं. सरकार का मानना है कि इस सर्वे से नकली दूध से जुड़े मिथकों को दूर करने में मदद मिलेगी. संस्थान ने पूरे देश में 6432 सैंपल इकट्ठा किए थे. इनमें से 456 असुरक्षित पाए गए. उनमें संक्रामक थे. इनमें से भी 12 सैंपल ऐसे थे जिनमें यूरिया, हाइड्रोडन परओक्साइड, डिटर्जेंट की मिलावट पायी गई थी.

तमिलनाडु, दिल्ली और केरल ऐसे तीन राज्य निकले जहां के दूध सैंपलों में सबसे ज्यादा एफ्लाटोक्सिन एम1 नामक घातक कैंसरकारी तत्व पाया गया है, जो दुधारू पशुओं को दिए जाने वाले चारे में मिला है. कच्चे दूध की अपेक्षा प्रसंस्कृत (प्रोसेस्ड) दूध में एफ्लाटोक्सिन की मात्रा ज्यादा पायी गयी है. ये कुछ खास किस्म के फंफूद से पैदा होना वाला जहरीला पदार्थ है, जो मक्का, मूंगफली, कपास आदि फसलों में मिलता है.

एक किलोग्राम खाद्य पदार्थ में एक मिलीग्राम से ज्यादा एफ्लाटोक्सिन घातक बीमारियां पैदा कर सकता है जिनसे लीवर को नुकसान, पीलिया जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के पिछले साल के एक अध्ययन के मुताबिक इसके ज्यादा प्रयोग से मृत्यु तक हो सकती है. प्राधिकरण के पैमाने के तहत दूध में एफ्लाटोक्सिन की मात्रा प्रति किलो में दशमलव पांच माइक्रोग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

ताजा सर्वे में कुल दूध सैंपलों में सात प्रतिशत सैंपल ही पूरी तरह असुरक्षित पाए गए हैं. लेकिन इसी सर्वे की पिछले साल की रिपोर्ट में ऐसे खराब सैंपलों की संख्या तीन प्रतिशत ज्यादा थी. दूध में एंटीबायोटिक भी पाया गया है हालांकि यह मुनासिब दायरे में बताया गया है. एक और तत्व कुछ सैंपलों में मिला है- मैल्टोडेक्सट्रिन जो घातक तो नहीं है लेकिन इसकी वजह से दूध में चर्बी की मात्रा बढ़ जाती है. इसी तरह कुछ सैंपलों में शुगर की मात्रा पायी गयी है. ऐसे अधिकतर सैंपल प्रोसेस्सड दूध के थे.

संगठित डेयरी उद्योग को इस दिशा में सतर्क रहने को कह गया है. और उनके लिए परीक्षण और सैंप्लिंग से जुड़ी एक योजना भी अगले साल से शुरू किए जाने का प्रस्ताव है. प्राधिकरण ने मिलावट की जांच के लिए परीक्षण किट भी तैयार किए हैं. लेकिन इस किट का बड़े पैमाने पर उत्पादन और मार्केटिंग अभी बाकी है. वैसे यह भी सच है कि देश में संगठित डेयरी उद्योग के समांतर असंगठित सेक्टर का एक विशाल दायरा है और गली-मोहल्लों में नगर निगमों और जिला प्रशासनों की नाक के नीचे ऐसी डेयरियां धड़ल्ले से चल रही हैं जहां एफएसएसएआई के मानक तो बहुत दूर की बात हैं, बुनियादी साफ सफाई की ओर भी कम ही ध्यान दिया जाता है.

तरल दूध के अलावा घी, मक्खन, खोया और पनीर जैसे दुग्ध उत्पादों को लेकर भी चिंताएं और कार्रवाइयां सामने आती रही हैं. यूं नए सर्वे में सबसे खराब सैंपल वाले पहले तीन राज्यों में दो दक्षिण भारत के ही हैं लेकिन खाद्य सुरक्षा नियंत्रक का मानना यह रहा है कि दूध मे मिलावट की सबसे अधिक समस्या उत्तर भारत में पायी जाती है. इकोनॉमिक टाइम्स अखबार की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस दौरान हुए एक सर्वे में पाया गया था कि नकली दूध के मामले में उत्तर भारत के राज्य अव्वल हैं.

ताजा सर्वे में खास बात यह है कि पहले के मुकाबले ज्यादा सैंपलों की जांच की गयी, सभी चार क्वॉलिटी पैरामीटर परखे गए और मिलावटी और संक्रामक पदार्थों की जांच भी की गई. लेकिन इस पूरी एक्सरसाइज में मुख्यबिंदु प्राधिकरण के ही शब्दों में उस कथित धारणा को तोड़ने का है जो पूरे देश में दूध की मिलावट को लेकर बनी रही है. प्राधिकरण के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं है. जाहिर है इस सर्वे से डेयरी उद्योग को बड़ी राहत मिलेगी. और दूध के कारोबार से जुड़े लोगों को लाभ पहुंचेगा. लेकिन बात सिर्फ कारोबारी फायदे की नहीं है. दूध उत्पादन के सबसे निचले चरण के लोग यानी साधारण किसान और पशुपालक या छोटीमोटी डेयरी चलाकर गुजारा करने वाले लोगों और समुदायों के बारे में समांतर रूप से सही व्यवस्था किए जाने की जरूरत है. पशुओं के चारे की बात हो या जरूरी उपकरण और अन्य सुविधाएं जिनमें आर्थिक मदद भी शामिल है, का ध्यान सरकारी संस्थाओं और उपभोक्ता मामलों से जुड़े मंत्रालय के आधीन आने वाले विभागों की ओर से सुनिश्चित किया जाना चाहिए.

दूध या दूध से बनने वाले पदार्थों की जांच भी नियमित रूप से तीन या छह महीनों के अंतराल में कराए जाने की जरूरत है, न कि सालाना आधार पर. जब अर्थव्यवस्था की तिमाही जांच की जा सकती है तो खाद्य व्यवस्था की क्यों नहीं. सबसे अहम तो यह है कि दुग्ध उत्पादन को एक सफल उद्योग के रूप मे परिवर्तित करने के लिए सहकारी आंदोलन को एक बार फिर पुनर्जीवित करने की जरूरत है जो हाल के दशकों में दम तोड़ता सा दिखता है. कोऑपरेटिव, कंपनियों में तब्दील किए जा रहे हैं और उनसे वैसे ही मुनाफे की मांग की जा रही है जैसे कि किसी सॉफ्टवेयर कंपनी से. जबकि कोऑपरेटिव की अवधारणा मुनाफा केंद्रित नहीं मनुष्य विकास केंद्रित मानी जाती रही है.

"मिल्कमैन” के नाम से विख्ताय वर्गीज कुरियन इसकी मिसाल रहे हैं जिन्हें दुग्ध उत्पादन को सहकारी आंदोलन का सशक्त प्रतीक बना दिया था और देश में "श्वेत क्रांति” का आगाज किया था. 1976 में रिलीज हुई फिल्मकार श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी, कैफी आजमी जैसे शायर के संवाद और विजय तेंदुलकर जैसे नाट्यकार की पटकथा और गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल और अमरीश पुरी जैसे प्रखर अभिनेताओं से सजी, प्रसिद्ध फिल्म "मंथन” के जरिए उस आंदोलन को समझा जा सकता है और दुग्ध उत्पादन की सामुदायिकता को भी.

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