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मेडिकल धोखाधड़ी के शिकार बनते लोग

२७ नवम्बर २०१८

आईसीआईजे की रिपोर्ट दिखाती है कि दुनिया भर की ही तरह भारत में भी आम लोग बड़े पैमाने पर होने वाली चिकित्सकीय धोखाधड़ी का शिकार हो रहे हैं. देश में चिकित्सा उपकरणों का कारोबार अरबों का है.

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Firma Carmat - künstliches Herz
तस्वीर: Getty Images

चिकित्सा उपकरणों की घटिया क्वालिटी और मनमानी कीमत के चलते हर साल खासकर गरीबों की जेब से अरबों डालर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जेब में जा रहे हैं. इसमें चिकित्सा के पेशे से जुड़े लोगों के अलावा तमाम एजेंट्स भी शामिल हैं. देश में इन उपकरणों का सालाना कारोबार 5.2 अरब अमेरिकी डालर का है, जिसके वर्ष 2025 तक बढ़ कर लगभग 50 अरब डालर तक पहुंचने का अनुमान है. भारत चिकित्सा उपकरणों का दुनिया का चौथा सबसे बड़ा बाजार है.

इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स और दुनिया भर के 36 देशों के 58 समाचार संगठनों के 250 से ज्यादा पत्रकारों की ओर से कई देशों में चली जांच के बाद देश के एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार में छपी रिपोर्ट से चिकित्सा उपकरणों के क्षेत्र में विश्वव्यापी गोरखधंधे का पता चलता है.

मरीजों को ठगने का सिलसिला

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के रहने वाले तापस मंडल कहते हैं कि चिकित्सा उपकरणों में बड़े पैमाने पर होने वाले घोटाले का पता उनको अपने पिता के मामले से चला था.

मंडल ने बताया, "कोलकाता के डाक्टरों ने मेरे पिता के हृदय में स्टेंट लगाने की सलाह दी थी और इस पर लगभग तीन लाख का खर्च बताया था. लेकिन दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के एक अस्पताल में महज 60 हजार रुपए में यह काम हो गया.” वह सवाल करते हैं कि आखिर एक ही चीज की कीमत में पांच गुना अंतर क्यों है? तापस के इस सवाल का जवाब तो सब जानते हैं लेकिन उसे खुल कर कहने की किसी में हिम्मत नहीं है. विशेषज्ञों का कहना है कि दरअसल हमाम में सब नंगे हैं. ऐसे में कोई किसी दूसरे पर अंगुली कैसे उठा सकता है?

आईसीआईजे ने क्या पाया

दुनिया भर के 250 से ज्यादा पत्रकारों ने 36 देशों में साल भर तक चली जांच के दौरान जो जानकारियां जुटाई हैं वह चौंकाने वाली हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चिकित्सा उपकरणों के बाजार में बड़े पैमाने पर धांधली हो रही है. कई बार मरीजों व उनके परिजनों को जानकारी दिए बिना ही तकनीकी गड़बड़ी वाले उपकरण लगा दिए जाते हैं. इसका नतीजा खतरनाक होता है. रिपोर्ट के मुताबिक, एक ही उत्पाद का नाम, क्वालिटी और कीमत अलग-अलग देशों में अलग-अलग है. चिकित्सा उपकरणों के मामले में कहीं कोई आम सहमति नहीं है कि कौन सा उपकरण मरीज के लिए सुरक्षित है और कौन सा नहीं. इस मामले में न तो कहीं कोई चेतावनी प्रणाली है और न ही कोई नियामक संस्था.

पेट में टाइम बम जैसी बीमारी

रिपोर्ट के मुताबिक चिकित्सा उपकरणों में हर साल सैकड़ों की तादाद में तकनीकी खामियां सामने आई हैं. लेकिन मरीजों या उनके परिजनों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती. कई बार इन तकनीकी खामियों के चलते मरीजों की मौत हो जाती है या फिर उनकी हालत और बिगड़ जाती है. इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) की रिपोर्ट में कहा गया है कि चिकित्सा उपकरणों की तकनीकी खामियों की वजह से बीते एक दशक के दौरान पूरी दुनिया में 82 हजार लोगों की मौत हो चुकी है और 17 लाख मरीज घायल हो चुके हैं.

उपकरणों पर नियंत्रण नहीं 

विशेषज्ञों का कहना है कि कई बार तो अगर किसी उपकरण पर किसी देश में पाबंदी लगा दी गई है तो दूसरे देश में मरीजों पर उसी का इस्तेमाल किया जाता है. नियामक संस्था की गैरमौजूदगी के चलते ऐसे मामलों पर रोक लगाना संभव नहीं है. जापान, चीन और दक्षिण कोरिया के बाद भारत चिकित्सा उपकरणों का चौथा सबसे बड़ा बाजार है. भारत में चिकित्सा उपकरण ड्रग्स एंड कास्मेटिक्स एक्ट, 1940 और इस साल जनवरी में लागू मेडिकल डिवाइस रूल्स, 2017 के जरिए दवाओं के तौर पर नियंत्रित होते हैं. देश में नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथारिटी आफ इंडिया (एनपीपीए) ही चिकित्सा उपकरणों की कीमतों की निगरानी करता है. लेकिन बावजूद इसके इनकी कीमतों में एकरूपता नहीं होना चिंता का विषय है.

चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि चिकित्सा उपकरणों के कारोबार में बिचौलियों के राज और भारी कमीशन की वजह से स्टेंट और पेसमेकर की कीमत मरीज तक पहुंचने पर मूल कीमत से कई गुनी ज्यादा हो जाती है. सरकार ने अब तक इस पर निगरानी या नियमन की दिशा में कोई पहल नहीं की है. सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि किसी उपकरण की तकनीकी खामियों के चलते मरीज को नुकसान होने की स्थिति में सरकार के पास संबंधित दवा कंपनी को मुआवजे का निर्देश देने का न तो कोई अधिकार है और न ही इसके लिए अब तक कोई कानून बननाया जा सका है.

अब हाल में जानसन एंड जानसन कंपनी की ओर से गड़बड़ी वाले हिप इंप्लांट का मामला सामने आने के बाद इस मुद्दे पर बहस तेज हो गई है. विशेषज्ञों और गैर-सरकारी संगठनों ने अब सरकार से ऐसी स्थिति में मुआवजे के लिए संबंधित कानून मे संशोधन की मांग उठाई है. दिलचस्प बात यह है कि चिकित्सा उपकरणों के मामले में 12 साल पहले ही एक विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था. लेकिन सरकारों की उपेक्षा की वजह से उसे अब तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है.

नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथारिटी ने कुछ महीने पहले दिल्ली एनसीआर क्षेत्र के चार निजी अस्पतालों के बिलों के अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट जारी की थी, वह चौंकाने वाली थी. उसमें कहा गया था कि अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) में हेर फेर के जरिए निजी अस्पताल दवाओं व चिकित्सा उपकरणों में 1,700 सौ फीसदी तक मुनाफा कमा रहे हैं. देश में कोई भी चीज एमआरपी से ज्यादा कीमत पर नहीं बेची जा सकती. लेकिन एमआरपी तय करने का कोई नियम या मानदंड नहीं होने की वजह से दवा कंपनियां और निजी अस्पताल जमकर फायदा कमा रहे हैं.

चिकित्सा विशेषज्ञ गौरांग दास कहते हैं, "चिकित्सा उपकरणों की खरीद-बिक्री में संगठित गिरोह काम करता है. कीमतों पर निगरानी या नियमन का कोई ठोस तंत्र व कानून नहीं होने की वजह से निर्माता कंपनियों की पांचों अंगुलियां घी में औऱ सिर कड़ाही में हैं.” वह कहते हैं कि मौजूदा परिस्थिति में सबको स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का सपना फिलहाल तो पूरा होता नहीं नजर आता.

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