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यूपी में माया अखिलेश एक साथ, पर ज्यादा फायदा किसे होगा?

समीरात्मज मिश्र
१२ जनवरी २०१९

आखिरकार उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने मिल कर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया. गठबंधन तो हो गया, लेकिन इससे असली फायदा किसको होगा, जानिए.

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Indien Mayawati in Neu-Delhi
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/S. Das

उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियों- समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने 2019 में लोकसभा चुनाव एक साथ लड़ने का फैसला किया है और दोनों ने 38-38 सीटों पर लड़ने की घोषणा की है.

लखनऊ के ताज होटल में एसपी नेता अखिलेश यादव और बीएसपी नेता मायावती ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि वे रायबरेली और अमेठी की सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारेंगी और दो सीटें इसलिए छोड़ी जा रही हैं ताकि गठबंधन में अन्य दलों को भी शामिल किया जा सके.

हालांकि पहले माना जा रहा था कि इस गठबंधन में कांग्रेस और आरएलडी भी शामिल होंगी लेकिन फिलहाल इनसे दूरी बनाकर रखी गई है. जानकारों का कहना है कि आरएलडी के साथ तो समझौते की बात अभी भी चल रही है लेकिन कांग्रेस गठबंधन में शामिल नहीं होगी, ये तय हो चुका है.

Lucknow Akhilesh Yadav Rath Yatra Kampagne  Indien
तस्वीर: DW/F.Freed

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पांच सीटें मिली थीं जबकि बीएसपी को एक भी सीट हासिल नहीं हुई. लेकिन पिछले साल जब फूलपुर और गोरखपुर की लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी ने ये दोनों सीटें जीत लीं. इन सीटों पर बीएसपी ने उसे समर्थन दिया था. वहीं बाद में कैराना लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी आरएलटी उम्मीदवार को एसपी और बीएसपी के अलावा कांग्रेस ने भी समर्थन दिया और गठबंधन की जीत हुई. यहीं से गठबंधन की राह निकल पड़ी.

करीब 25 साल पहले अयोध्या आंदोलन के दौरान भी बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बीएसपी प्रमुख कांशीराम ने हाथ मिलाया था. यह संयोग ही है कि इस बार भी इन दोनों दलों के एक साथ आने का कारण भी भारतीय जनता पार्टी ही है.

2014 के लोकसभा चुनाव और फिर 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की इकतरफा जीत ने दोनों ही पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया और फिर उपचुनाव में मिली जीत ने इन्हें एक साथ आने का साहस, ऊर्जा और विश्वास दिया.

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जानकारों का कहना है कि राज्य में जिस तरह से जाति और धर्म के आधार पर मतदान होता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दोनों दलों का साथ आना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हो सकता है. हालांकि बीजेपी अभी भी ये दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह इन सबसे बेफिक्र है.

दिल्ली में चल रही बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने गठबंधन की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि अब की बार बीजेपी अस्सी में से 74 सीटें जीतेगी. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, "अमित शाह का यह कहना ही उनकी चिंता को दिखा रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों पार्टियों के पास एक अच्छा खासा जनाधार है. दोनों के ही पास समर्पित मतदाता. परिस्थितियों को देखकर लगता भी है कि दोनों ही पार्टियां अपने वोटों को एक दूसरे को ट्रांसफर कराने में कामयाब होंगी.”

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 71 और उसकी सहयोगी अपना दल ने 2 सीटें जीतीं थीं. वहीं एसपी के खाते में पांच और कांग्रेस के खाते में सिर्फ दो सीटें ही आई थीं और बीएसपी का खाता भी नहीं खुला था. जहां तक मत प्रतिशत का सवाल है तो बीजेपी और अपना दल को करीब 43 फीसदी वोट हासिल हुए थे.

यानी, दोनों के मत प्रतिशत में सिर्फ एक फीसद का अंतर था जबकि सीटों के लिहाज से देखें तो राज्य में 41 सीटें ऐसी थीं जहां एसपी और बीएसपी ने मिलकर बीजेपी से ज्यादा वोट हासिल किए थे. माना जा रहा है कि यदि वोटिंग पैटर्न वैसा ही रहा जैसा कि 2014 में था तो सीटों के लिहाज से गठबंधन को बड़ा फायदा तो बीजेपी को भारी नुकसान हो सकता है.

हालांकि राजनातिक टिप्पणीकारों का यह भी कहना है कि चुनाव में पार्टियों का मिलना या गठबंधन होना गणित के आधार पर नहीं, बल्कि केमिस्ट्री के आधार पर परिणाम देते हैं. राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण कहते हैं कि चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी वोटों की गणित के आधार पर नहीं की जा सकती.

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उनके मुताबिक, "चुनाव परिणाम काफी हद तक उन मुद्दों पर निर्भर करता है जिन पर लोग वोट देते हैं. साथ ही सीट दर सीट उम्मीदवारों की स्थिति पर भी निर्भर करता है. 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी. लोगों ने बदलाव और स्थिर सरकार के लिए वोट दिया. लेकिन अब लोग मौजूदा सरकार के प्रदर्शन के आधार पर वोट देंगे. गठबंधन से दोनों दलों के समर्पित मतदाता तो एक होंगे, वोटों का केंद्रीकरण होगा, इसकी वजह से अल्पसंख्यक मतदाता भी गठबंधन के उम्मीदवारों पर ही दांव लगाएगा, लेकिन हर सीट पर ऐसा जरूरी नहीं है.”

बद्री नारायण कहते हैं कि कांग्रेस, आरएलडी और शिवपाल यादव की नई बनी पार्टी चुनाव में किस स्थिति में रहते हैं, यानी एक साथ आते हैं या फिर अलग-अलग रहते हैं, इसके बाद ही गठबंधन के फायदे और नुकसान के बारे में कुछ भविष्यवाणी की जा सकती है, उससे पहले नहीं.

दरअसल, इस गठबंधन में शामिल दोनों दलों के पास अपने जाति-आधारित वोट हैं और माना जा रहा है कि ये वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हो सकते हैं. हालांकि बीएसपी के एक नेता इस पर शंका भी जाहिर करते हैं. उनका कहना है, "बीएसपी का वोट तो एसपी उम्मीदवार को या फिर जहां भी मायावती जी कहेंगी, ट्रांसफर हो जाएगा लेकिन एसपी का मतदाता भी बीएसपी उम्मीदवार को वोट देगा, ऐसी उम्मीद करना ठीक नहीं है. राज्यसभा चुनाव में ही देखिए, एसपी के विधायकों ने धोखा दे दिया. तो अब आगे क्या उम्मीद की जाए.”

हालांकि जानकारों का कहना है कि इन दोनों ही पार्टियों के समर्पित मतदाता बीजेपी सरकार में खुद को इतने पीड़ित और उपेक्षित पा रहे हैं कि गठबंधन के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं रहेगा. लेकिन ये बात सिर्फ समर्पित मतदाताओं के बारे में ही कही जा सकती है, उस समुदाय के हर वोटर के बारे में नहीं.

वैसे 1993 के विधानसभा चुनावों में जब एसपी और बीएसपी ने एक साथ चुनाव लड़ा था, तब दोनों के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हुए थे लेकिन अब ऐसा होना कितना संभव है? वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, "कड़वाहट तो दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में बहुत बढ़ चुकी थी लेकिन दोनों ही देख रहे हैं कि जब उनके नेता एक साथ आ गए हैं तो शायद अब कार्यकर्ता और मतदाता भी साथ आ जाए.”

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