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अब चुभती हैं रमजान की वो यादें

१६ मई २०१८

12 साल के रोहिंग्या बच्चे हाशिम को रमजान के महीने में अपने गांव की बहुत याद सताती है. पेड़ों की छांव में परिवार के साथ मछली और मिठाइयों से रोजा खोलना और मिल कर नमाज के लिए मस्जिद जाना, अब ये सब बहुत पीछे छूट चुका है.

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Bangladesch Rohingya Flüchtlingscamp Cox's Bazar
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Uz Zaman

हाशिम का गांव म्यांमार में है और अब लाखों रोहिंग्या लोगों की तरह वह भी बांग्लादेश में शरणार्थी कैंप में रह रहा है. रमजान के महीने में उसे पुरानी यादें चुभती हैं. कॉक्स बाजार जिले में रहने वाले हाशिम ने बताया, "यहां हम तोहफे नहीं खरीद सकते, यहां हमारे पास अच्छा खाना नहीं है.. क्योंकि यह हमारा देश नहीं है." लेकिन जिस म्यांमार को हाशिम अपना देश कहता है, वहां की सरकार रोहिंग्या लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती. पिछले साल अगस्त में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ हिंसा के बाद लगभग सात लाख लोगों को वहां से भागकर बांग्लादेश आना पड़ा, जो अब बांस और त्रिपाल से बने तंबुओं में रह रहे हैं. रोहिंग्या लोगों के खिलाफ म्यांमार की सेना की कार्रवाई को संयुक्त राष्ट्र जातीय सफाया बताता है.

बांग्लादेश में रहने वाले कई रोहिंग्या लोग खुद को भाग्यशाली समझते हैं कि वह म्यांमार से बचकर निकलने में कामयाब रहे, लेकिन तपती गर्मी में खाने और पैसे की किल्लत उनके सामने है, जो रमजान के महीने में और भी ज्यादा महसूस होती है. अपने तंबु में बैठा हाशिम बताता है कि कैसे उसके गांव में रमजान का महीना साल का सबसे खास समय होता था. हर रोज दोस्त और परिवार वाले मिल कर रोजा तोड़ते थे और खाने के लिए अच्छा अच्छा खाना और मिठाइयां मिलती थीं. उसके मुताबिक, पहनने के लिए नए कपड़े मिलते थे जिनमें इत्र लगा होता था. वह कहता है, "हम यहां पर वैसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं है. हमारी अपनी जमीन नहीं है. हम यहां पैसा नहीं कमा सकते क्योंकि हमें इसकी इजाजत नहीं है."

Bangladesch Rohingya Flüchtlingscamp Cox's Bazar
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Uz Zaman

बांग्लादेश में रहने वाले रोहिंग्या लोग काम नहीं कर सकते. साथ ही दर्जनों सैन्य चौकियां उन्हें दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी शिविर से बाहर नहीं जाने देतीं. वे खाने से लेकर दवाओं और कपड़ों के लिए सहायता संगठनों पर निर्भर हैं. इस शिविर से नजदीकी बाजार तक पहुंचने के लिए हाशिम को लगभग एक घंटा चलना होगा.

हाशिम कहता है, "यहां पर हम लोग बर्मा (म्यांमार) की तरह रोजा नहीं रख सकते हैं क्योंकि यहां पर बहुत गर्मी है. आसपास पेड़ भी नहीं हैं." वह कहता है कि जब सूरज चढ़ता है तो तंबू की त्रिपाल बहुत गर्म हो जाती है. इसके बावजूद हाशिम खुशकिमस्मत है कि वह अपने माता पिता के साथ यहां रह रहा है. बहुत से बच्चे तो इस शिविर में अकेले रह रहे हैं. कुछ के माता पिता म्यांमार में ही हैं, जबकि कुछ का अता पता ही नहीं है. हजारों लोग अपने माता पिता या परिवार के बिना ही सीमा पार कर बांग्लादेश में आए. कई बच्चे अनाथ भी हैं. कॉक्स बाजार में राहत संस्था सेव द चिल्ड्रन के लिए काम करने वाली रोबेर्टा बुसीनारो का कहना है, "दुर्भाग्य से यह पहला रमजान होगा जिसे गलत वजहों से याद किया जाएगा. वे (बच्चे) मिट्टी और कीचड़ में खेलने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते. रमजान के महीने में वे अपने माता-पिता, परिवार और दोस्तों से अलग हैं."

एके/आईबी (एएफपी)