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वर्चस्व, वासना और रेप

२७ जनवरी २०१४

नया कानून अमल में है. लेकिन औरतों पर हमले बेतहाशा हो गए हैं. एक समाज उन्हें दबंगई से चोट पहुंचाता है तो एक कथित इंसाफ करता हुआ उन्हें निशाना बनाता है. जितनी ज्यादा आधुनिकता आती है उतनी ही पशुता के नाखून बढ़ जाते हैं.

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Gedenken Indien Gruppenvergewaltigung Mord 29.12.2013
तस्वीर: picture-alliance/AP

सांस्कृतिक उत्पादों का जखीरा जहां से बनता और फैलता है, सांस्कृतिक प्रभुत्व के प्रधान उस अमेरिका में भी हाल की एक रिपोर्ट बताती है कि हर पांचवीं महिला यौन शोषण की शिकार है. अमेरिका आदि से आयातित रोशनी में चमकते दौर से गुजरते भारत में उतनी ही वीरानियां और स्याह कोने हैं, जहां शहर हो या देहात, महिलाओं को निशाना बनाया गया है.

2014 की ये जनवरी तो मानो हमारी उम्मीदों और सपनों की कम, आशंका और आक्रमण की जनवरी साबित हो रही है. इस एक महीने में पश्चिम बंगाल के वीरभूम से लेकर देश भर में जैसे वहशियों ने नई यातना पॉकेट्स तैयार कर ली हैं. 27 जनवरी नाजी यातना शिविर आउश्वित्ज से मुक्ति की 69वीं सालगिरह है. लेकिन साढ़े छह दशकों बाद हम यातना शिविर पूरी दुनिया में पाते हैं. सबसे ज्यादा महिलाएं निशाने पर हैं. ये शिविर जेहन से लेकर घर, मुहल्ला, शहर, गांव, सड़क सब जगह फैले हैं.

64 साल के गणतंत्र में ये कुत्सित अभियान क्योंकर जारी है, इस पर बोलना तो दूर, हरकत तक नहीं होती. राष्ट्रपति का देश के नाम संदेश इन घृणितों को ललकारता नहीं है. कहीं कुछ नहीं होता. एक भीषण और उबाऊ यथास्थिति पसरी हुई है. और इसी में कुछ एक्शन छिटपुट होता है तो बाजुएं फड़कने लगती हैं, "अरे देखो अब क्रांति हुई". कुछ नहीं होता. एक मोमबत्ती भी पूरी नहीं पिघल पाती.

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तस्वीर: Reuters

इतिहास और सदी की बर्बरता आधुनिक जीवन में एक नए इरादे और नए हमले से लौट आई है. स्त्रियों का बलात्कार एक बहुत गहरी और साजिश भरी पॉलिटिकल मुहिम है. इसके तार बिखरे हुए हैं. कोई सूत्र किसी से नहीं जुड़ता. एक बढ़ती हुई बिरादरी को खामोश करने की उसे एक तय घेरेबंदी में रहने की नसीहत देने वाली पॉलिटिक्स है ये. वर्चस्ववादियों ने एक नई कॉलोनी बना दी है. वहां पूंजी की परिक्रमा करते हुए स्त्री और पुरुष हैं. उनकी हम बात नहीं करते. उन्हें और घूमना और चक्कर काटना है. लेकिन खतरनाक ये है कि उनकी फेंकी कुछ रौनकें बाकी समाज में छिटक जाती हैं. उनका उत्पात बहुआयामी है.

ऐसा उस देश में है जो 19वीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों की ऊष्मा ग्रहण कर चुका है. कानून कितना कड़ा कर लीजिए, दफ्तर से लेकर खुली सड़क तक गाइडलाइन से लेकर चौकियां दस्ते और सुरक्षा कर दीजिए. रेप को एक सनसनी बनाने वाले बाजार से भी उपकरण ले आइए. एक पिस्तौल निकाल लीजिए, इत्र, मिर्च और कुछ इसी किस्म की अजीबोगरीब पेशकशें कर लीजिए. लेकिन क्या आपको लगता है ये बलात्कार के विरुद्ध अकेली स्त्री के सबसे उपयोगी हथियार हैं.

बार बार बाजार क्यों जाते हो. रेप के विरुद्ध किसी नुस्खे की तलाश में. अपने अंदर क्यों नहीं जाते, समाज और संस्कृति में जो कूड़ा करकट जमा है, उसे क्यों नहीं बीनना शुरू करते. झाड़ झंखाड़ क्यों नहीं साफ करते. आत्मा से गंदगी की सफाई का अभियान क्यों नहीं छेड देते. और ये सब कहने पर कहते हो ये क्या नैतिक तीमारदारी की बात है. सतयुग कलियुग टाइप करते हो. क्या वाकई बहुत अजीब होता है जैसे ही आप इन दिनों आत्मा या नैतिकता की बात करने लगते हैं. इन्हें बस किताबी बातें और आध्यात्म मान लिया गया है.

सामाजिक व्यवहार आप कैसे बदलते हैं. डंडे और बंदूक और फांसी के दम पर? क्या इनके खौफ से बलात्कारी घर बैठ जाते हैं. क्या उनके भीतर का पशु भाग खड़ा होता है. वे मनुष्य बन जाते हैं?

ऐसा नहीं होता. खूंखारी ऐसे नहीं मरती. एक बहुत ही लंबी और अलग किस्म की लड़ाई चाहिए. एक विराट अलख जगाने का कोई देशव्यापी कार्यक्रम. कोई एक ऐसा आलोड़न चाहिए, ऐसा एक मूवमेंट और मॉमेंटम जहां हर कोई उठे और प्रतिरोध की नई चेतना बनाए. छोटे छोटे स्तरों पर ये हुआ है. लोग कर रहे हैं. स्त्री आंदोलन हैं. याद कीजिए मणिपुर की महिलाओं का निर्वस्त्र प्रदर्शन. इरोम शर्मिला को देखिए. देश के अन्य हिस्सों में हमलों और शोषणों से उबर कर आई महिलाओं को देखिए. लेकिन ये बिखरी हुई कहानियां हैं, इन्हें एक जगह एक वेग में लाने की जरूरत अब है. वरना इस समाज में तो आदमी भले रह जाएं, आदमियत नहीं रहेगी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ