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विवादों के रडार पर राफाल और चिंता में फ्रांस

रणवीर नायर
१७ सितम्बर २०१८

भारत में फ्रांस की कंपनी दासो के बनाए 36 राफाल विमान के सौदे को लेकर जो विवाद चल रहा है उस पर फ्रांस की सरकार और मीडिया भी बहुत बारीकी से नजर रख रही है.

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Frankreich Luft- und Raumfahrtmesse in Le Bourget Dassault Rafale Kampfflugzeug
तस्वीर: Reuters

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसोआ ओलांद ने 2015 में भारतीय वायु सेना के लिए 36 राफाल विमानों के सौदे का एलान अचानक कर दिया था. तीन साल बाद भारत की विपक्षी पार्टियां इस सौदे में भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी के साथ ही एक बड़े कारोबारी को फायदा पहुंचाने के आरोप लगा रही हैं. इन सब से फ्रांस में भी बेचैनी है. 

प्रधानमंत्री बनने के बाद अप्रैल 2015 में पहली बार फ्रांस पहुंचे नरेंद्र मोदी ने इस एलान से सबको चौंका दिया था कि भारत ने फ्रांस से 36 राफाल विमानों की खरीद के लिए गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील पर दस्तखत करने का फैसला किया है. इसका पहला असर यह हुआ कि जिस सौदे पर पहले बातचीत चल रही थी वह खत्म हो गया. पुराना सौदा पारदर्शी तरीके से सार्वजनिक खरीदारी की प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ रहा था जिसमें फ्रांस की दासो कंपनी का राफाल लड़ाकू विमान रूस के मिग, स्वीडन के साब ग्रिपेन और जर्मनी तथा तीन अन्य देशों के यूरोफाइटर टाइफून से मुकाबले में कामयाब हुआ था.

Frankreich Luftwaffe Kampfjet Dassault Rafale über Libyen
तस्वीर: AP

विमान का खरीदार नहीं

1990 के दशक से ही राफाल के भविष्य पर फ्रांस की सरकार और मीडिया की नजर है. इस दशक के आखिरी सालों में यह जहाज विकसित होकर सेवा में शामिल करने के लिए तैयार हुआ. इस बात पर शायद ही कोई संदेह करेगा कि राफाल चौथी पीढ़ी का सबसे आधुनिक मीडियम रेंज मल्टीकंट्रोल लड़ाकू विमान है. दासो कंपनी के ही एक और सफल विमान मिराज की जगह लेने के लिए इस जहाज को तैयार किया गया. हालांकि तमाम खूबियों से लैस होने के बाद भी इसे अपने लिए ग्राहक ढूंढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी.

फ्रांस की वायु सेना और नौसेना में कुल मिला कर 132 राफाल विमान हैं. 2004 में फ्रांस की नौसेना और 2006 में फ्रांस की वायु सेना में शामिल होने के करीब एक दशक बाद भी राफाल को कोई विदेशी खरीदार नहीं मिला. शायद इसके पीछे इसकी ऊंची कीमत प्रमुख वजह है. हालांकि दासो ने बड़ी छूट देने की बात की साथ ही फ्रांस की सरकार और राजनीतिक नेतृत्व ने अपनी तरफ से भी इसे बेचने के बहुत प्रयास किए.

देखिए: किन जहाजों से था राफाल का मुकाबला

ब्राजील, मोरक्को, लीबिया, स्विट्जरलैंड और मलेशिया के साथ विमान बेचने पर बातचीत आगे बढ़ी जरूर लेकिन करार नहीं हो सका. भारत के साथ 126 जहाजों के ठेके की बात आगे बढ़ी तो फ्रांस में इस पर खूब चर्चा हुई. खासतौर से इसलिए क्योंकि कोई और खरीदार नहीं मिलने के कारण दासो अब इस विमान की प्रोडक्शन लाइन बंद करने पर विचार कर रहा था.

भारत के साथ सौदा राफाल और उसके हथियारों के निर्माण में लगे हजारों लोगों की नौकरी के लिए संजीवनी साबित हुई. भारत में चल रहे घटनाक्रम के पल पल पर फ्रांस की सरकार की नजर थी. दिल्ली में फ्रांस के राजनयिक दासो और भारत सरकार के बीच चल रही सौदेबाजी की पूरी प्रक्रिया के बारे में हर छोटी बड़ी बात पर नजर रख रहे थे.

पुराने सौदे में मुश्किल

यह सौदा कई बातों को लेकर उलझा हुआ था जिसमें सबसे बड़ी पेंच उन विमानों की गारंटी थी जो हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल भारत में दासो की मदद से बनाता. इसके साथ ही विमानों की एसेंबली यानी पुर्जों को जोड़ कर विमान बनाने के काम में लगने वाले श्रम को लेकर भी सहमति नहीं बन पा रही थी. भारत सरकार चाहती थी कि दासो सभी विमानों के लिए गारंटी दे चाहे वो फ्रांस में बनें या फिर भारत में. इसके साथ ही भारत सरकार ने एचएएल को दासो के प्रमुख सहयोगी के रूप में चुना जबकि ऐसी खबरें हैं कि दासो मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज को अपना सहयोगी बनाने के लिए बातचीत कर रही थी.

दासो और भारत सरकार के बीच बातचीत चार साल अटकी रही और पेरिस में नए सौदे का एलान करते वक्त प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ही प्रमुख वजह बताया, इसके साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारतीय वायु सेना को राफाल जैसे विमान की तत्काल जरूरत है. मोदी का यह भी कहना था कि उन्होंने गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील का रास्ता इसलिए चुना है ताकि विमान मिलने में ज्यादा वक्त ना लगे और आपूर्ति 2019 तक शुरू हो जाएं. 

भारत के लिए यह थोड़ी चौंकाने वाली बात थी मगर फ्रांस में यह कोई अपवाद नहीं है. बल्कि यहां तो गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील का ही नियम है. फ्रांस के ज्यादातर रक्षा निर्यात और राफाल के साथ जो सौदे हुए वो सब इसी रास्ते से. इनमें 2015 में मिस्र के साथ और 2016 में कतर के साथ हुआ समझौता भी शामिल है.

Luxemburg Präsident Emmanuel Macron
तस्वीर: Imago/Belga/E. Lalmand

गोपनीयता की शर्त

जब भारत में कीमत और पारदर्शिता को लेकर विवाद उठा तो फ्रांस की सरकार ने आरोपों का खंडन करने में जरा भी देर नहीं लगाई इसके अलावा 2008 में भारत सरकार के साथ हुए गोपनीयता समझौते का भी जिक्र किया जिसके दायरे में रक्षा सौदे आते हैं.

फ्रांस के विदेश मंत्रालय ने  20 जुलाई 2018 को बयान जारी कर कहा, "हमने राहुल गांधी के संसद में दिए बयान को देखा है. फ्रांस और भारत ने 2008 में एक रक्षा समझौता किया था जो दोनों देशों को सहयोगी से मिली ऐसी गोपनीय जानकारियों की रक्षा के लिए कानूनी रूप से बाध्य करती है जो भारत या फ्रांस के रक्षा उपकरणों की सुरक्षा और कार्यात्मक क्षमताओं पर असर डाल सकते हैं. जाहिर है कि ये प्रावधान 23 सितंबर 2016 को 36 लड़ाकू विमानों और उनके हथियारों के लिए हुए समझौते पर भी लागू होते हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति ने 9 मार्च को इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में सार्वजनिक रूप से कहा था, "भारत में और फ्रांस में जब कोई सौदा बहुत संवेदनशील होता है तो हम उसके बारे में सारी जानकारी नहीं दे सकते.”

नाम खराब होने का डर    

इस विवाद में मुख्य रूप से फ्रांस भले ही निशाने पर ना हो लेकिन फ्रांस की सरकार और दासो दोनों को लग रहा है कि उनका नाम इसमें घसीटा जा रहा है. दासो एविएशन के सीईओ एरिक ट्रेपियर ने मार्च 2018 में एक भारतीय पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा, "जहां तक मेरा इससे ताल्लुक है... एक गवाह के रूप में और किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो इस करार को पूरा करने के लिए जिम्मेदार है...मैं बहुत साफ तौर पर कह सकता हूं कि यह एक बहुत साफ सुथरा सौदा है. यह कैसे मुमकिन है कि मैं फ्रांस और भारत के कानून के साथ साफ सौदा ना करूं.”

एरिक ट्रेपियर ने फ्रांस और भारत की मीडिया को दिए इंटरव्यू में सौदे का ब्यौरा देने से मना करने के साथ ही इस बात से भी इनकार किया है कि किसी तरह की गड़बड़ी हुई या भारत ने नए समझौते में ज्यादा कीमत दी है. हालांकि इस विवाद पर फ्रांस की मीडिया में बहुत चर्चा हो रही है और फ्रांस की सरकार विवाद के बारे में बात करने से बच रही है लेकिन इस विवाद के कारण फ्रांस के रक्षा उद्योग और खास तौर से दासो का जो नाम खराब हो रहा है उसे लेकर बेहद नाखुशी है.

राफाल का विवाद उठने के कुछ ही महीने पहले विमानन की दुनिया में फ्रांस की दिग्गज कंपनी एयरबस ने कई देशों में भ्रष्ट करतूतों की बात मानी जिसके बाद उसे जर्मनी, ताइवान और अमेरिका में जुर्माना देना पड़ा साथ ही कंपनी के शीर्ष प्रबंधन को साल की शुरूआत में ही पूरी तरह से बदल दिया गया. ऐसे में राफाल का विवाद सरकार के माथे पर चिंता की कुछ और लकीरें जरूर छोड़ गया है.

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