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संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार चार्टर के 70 साल

हेलेना काशेल
९ दिसम्बर २०१८

मानवाधिकारों पर सार्वभौम घोषणा के सात दशक बाद भी इन अधिकारों पर दुनिया भर में हमले हो रहे हैं. इसके बावजूद ये दिन कई वजहों से जश्न मनाने का दिन है.

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Michelle Bachelet spricht zum 70. Jahrestag der Erklärung der Menschenrechte
तस्वीर: picture-alliance/Keystone/M. Trezzini

"सब लोग गरिमा और अधिकार के मामले में जन्म से स्वतंत्र और बराबर है." एक आसान सा वाक्य जिसका मकसद दुनिया को बदलना था, पेरिस में 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 217 की घोषणा के साथ विश्व समुदाय पहली बार सभी लोगों के लिए लागू मौलिक अधिकारों पर राजी हुआ. मानवाधिकारों पर सार्वभौम घोषणा कोई बाध्यकारी संधि नहीं है. इसके बावजूद इसने सइद राद अल हुसैन के शब्दों में "आजादी और न्याय पाने में असंख्य लोगों की मदद की है."

इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अभी भी नियमित रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है. मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व महासचिव सलिल शेट्टी के अनुसार "2017 में मानवाधिकारों के आधारभूत मूल्यों यानि सम्मान और बराबरी पर बड़े पैमाने पर हमले हुए." ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार अमेरिका सहित बहुत से लोकतांत्रिक देश भी "पॉपुलिस्ट एजेंडा पर घरेलू विवाद में" विदेशों में मानवाधिकारों का समर्थन करने के लिए तैयार नहीं हैं.

Deutscher Menschenrechts-Filmpreis - Just a normal Girl
तस्वीर: Medienprojekt Wuppertal/Yasemin Markstein

बढ़ रहा है मानव व्यापार 

मानवाधिकार घोषणा के कई मुद्दों पर प्रगति के बदले पिछड़ने के संकेत हैं. मिसाल के तौर पर गुलामी के खिलाफ संघर्ष. घोषणापत्र में दासता और दासों के व्यापार पर रोक की बाद कही गई थी. हालांकि इस बीच दासता हर कहीं प्रतिबंधित है लेकिन दासता जैसी परिस्थितियों की खबरें अक्सर सुर्खियों में होती है. ऑस्ट्रेलिया के वाक फ्री फाउंडेशन के वैश्विक दासता सूचकांक के अनुसार दुनिया भर में 4 करोड़ लोग आधुनिक दासता की स्थिति में रह रहे हैं. इसका इस्तेमाल बंधुआ मजदूरी, जबरी मजदूरी और जबरी देह व्यापार के लिए होता है.

आधुनिक दासता खासकर युद्ध और विवाद क्षेत्रों में अत्यंत प्रचलित है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ की बेआटे आंद्रीस के अनुसार अफगानिस्तान या लीबिया जैसे देशों में लंबे समय से चले आ रहे ऐसे बहुत से विवाद क्षेत्र हैं जहां राज्य सत्ता का कोई प्रभाव नहीं है. इन देशों में दासता, मानव व्यापार और बंधुआ मजदूरी के मामले बढ़ रहे हैं. आईएलओ और वाक फ्री फाउंडेशन के अनुसार आधुनिक दासता सबसे ज्यादा अफ्रीका में और उसके बाद एशिया प्रशांत क्षेत्र में प्रचलित है. यूरोप परिषद ने चेतावनी दी है कि यूरोपीय संघ में भी दासता के मामले बढ़ रहे हैं. वैश्विक दासता सूचकांक के अनुसार 20 बड़े औद्योगिक देश सालाना 354 अरब डॉलर के मूल्य का माल आयात करते हैं जो संभवतः गुलामी वाले काम से तैयार किया जाता है.

Tunesien Polizei Gewalt
तस्वीर: picture-alliance/dpa

दमन और उत्पीड़न से सुरक्षा

इसी तरह मानवाधिकार घोषणापत्र में दमन और उत्पीड़न पर स्पष्ट राय व्यक्त की गई है. लेकिन विश्वव्यापी प्रतिबंध के बावजूद बहुत से देशों में सरकारी हिरासत में पिटाई, बिजली के झटके और काल कोठरी की सजा आम है. 2009 से 2014 तक एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 140 देशों में उत्पीड़न और यातना के विभिन्न रूपों को दर्ज किया है. यातना पर कोई ताजा अध्ययन नहीं है, लेकिन एमनेस्टी की मारिया शारलाऊ कहती हैं, "यातना बंद कमरों में दी जाती है, इसलिए उनके बारे में आंकड़े जुटाना बहुत ही मुश्किल है." लेकिन उनके बारे में कमी की बात नहीं सोची जा सकती क्योंकि कुल मिलाकर और ज्यादा देश अपने ही नागरिकों के खिलाफ दमनकारी रवैया अपना रहे हैं.

हालांकि लगातार नए देश यातना विरोधी संधि पर दस्तखत कर रहे हैं लेकिन लोगों को दी जाने वाली यातना में कमी नहीं आ रही है. शारलाऊ कहती हैं, "सरकारें मानवाधिकारों के चैंपियन के रूप में दिखना चाहती हैं, और इस तरह की संधियों पर दस्तखत करना और उनपर अमल नहीं करना बहुत ही आसान है क्योंकि ये साबित करना मुश्किल है कि सरकार यातना दे रही है. आरोपों की जांच सरकारी तंत्रों द्वारा ही होती है. यहां तक कि जर्मनी में भी पुलिस हिंसा की जांच के लिए कोई स्वतंत्र मशीनरी नहीं है. यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय कानून का महत्व भी घट रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति जैसे नेता भी आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के नाम पर यातना का समर्थन करते दिखते हैं.

Buchstaben formen das Wort Migrationspakt auf UN Fahne
तस्वीर: imago/C. Ohde

शरण का मुद्दा

मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुसार हर इंसान को यातना और उत्पीड़न से बचने के लिए दूसरे देशों में शरण लेने का हक है. लेकिन शरण पाने का कोई अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त अधिकार नहीं है. हालांकि जेनेवा संधि रिफ्यूजी को उन देशों में भेजने पर रोक लगाती है जहां उनका उत्पीड़न हुआ हो. दुनिया भर में 6.85 करोड़ लोग घरबार छोड़कर भाग रहे हैं, उनमें से ज्यादातर अपने ही देशों में विस्थापित हैं. 2017 में युद्ध और उत्पीड़न से घर छोड़कर भागने वालों की तादाद इतनी ज्यादा थी जितनी 1951 के बाद से कभी नहीं थी. दूसरे देशों में शरण चाहने वालों की संख्या भी बढ़कर 31 लाख हो गई है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कमिसार फिलिपो ग्रांडी कहते हैं, "आप कोई भी पैमाना ले लें, ये तादाद स्वीकार करने वाली नहीं है."

लेकिन इस बीच दुनिया के ज्यादातर देशों में शरणार्थी बहस का मुद्दा हैं और पॉपुलिस्ट पार्टियां इसे घरेलू बहस का मुद्दा बना रही हैं. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था के जर्मन दफ्तर के मार्टिन रेंच कहते हैं, "हम बहुत से देशों में देख रहे हैं कि लोगों को सुरक्षा देने की संभावना कम की जा रही है और शरणार्थियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी से पीछे हटने पर बहस हो रही है." यूरोप के लिए शरणार्थियों का मुद्दा विभाजन का मुद्दा बन गया है. ईयू के देशों ने शरणार्थी नीति में सख्ती का फैसला लिया है. अमेरिका भी शरणार्थियों के मुद्दे पर सख्त रवैया अपना रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति तो सीमा को बंद तक करने की बात कर रहे हैं. अमेरिका अकेला देश है जो इस हफ्ते मतदान से पहले संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि का समर्थन नहीं कर रहा है.

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