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समाज

समलैंगिक संबंधों के आधार पर किसी को बर्खास्त करना अनुचित

समीरात्मज मिश्र
१० फ़रवरी २०२१

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि समलैंगिकता के आरोप में किसी को नौकरी से हटाना गैरकानूनी है. उत्तर प्रदेश में एक होमगार्ड को इस आधार पर बर्खास्त किए जाने को गलत ठहराते हुए कोर्ट ने तुरंत उसे बहाल करने का आदेश दिया है.

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तस्वीर: AP

न्यायमूर्ति सुनीता अग्रवाल ने यूपी के बुलंदशहर में तैनात एक होमगार्ड को समलैंगिक संबंध बनाने के आरोप में बर्खास्त किए जाने के मामले की सुनवाई के दौरान यह आदेश जारी किया. जस्टिस सुनीता अग्रवाल ने होमगार्ड को सेवा से हटाने का आदेश रद्द करते हुए यूपी के होमगार्ड विभाग के कमाडेंट जनरल को आदेश दिया कि वे याचिकाकर्ता को तत्काल सेवा में वापस लें.

कोर्ट ने नवतेज ‌सिंह जौहर मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि विभाग की यह कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विपरीत है. कोर्ट का कहना था कि समलैंगिकता किसी व्यक्ति का निजी मामला है और यह उसके निजता के अधिकार के तहत आता है. याचिकाकर्ता को बुलंदशहर के जिला कमाडेंट होमगार्ड ने 11 जून 2019 को सेवा से हटा दिया था. कमांडेट ने यह कार्रवाई एक वीडियो वायरल होने के बाद की थी जिसमें याचिकाकर्ता होमगार्ड अपने एक साथी के साथ समलैंगिक संबंध बना रहा था. जिला कमाडेंट होमगार्ड ने अपने जवाब में कहा कि होमगार्ड को उसके अनैतिक कार्यों की वजह से सेवा से हटाया गया है लेकिन हाईकोर्ट ने इसे मानने से इनकार करते हुए कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का उल्लंघन है.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कोई भी व्यक्ति यदि अपनी पसंद के किसी व्यक्ति के साथ रहना चाहता है तो यह उसका निजी मामला है और इसे इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वे दोनों समलैंगिक हैं या फिर विषमलैंगिक. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, इसे अपराध समझने वाले किसी व्यक्ति या संस्था को उस व्यक्ति की निजता में हस्तक्षेप करना समझा जाएगा.

दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करते हुए दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था. धारा 377 को पहली बार कोर्ट में साल 1994 में चुनौती दी गई थी. कई साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने छह सितंबर 2018 को इस पर अंतिम फैसला दिया था.

फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एलजीबीटी समुदाय के निजी जीवन में झांकने का अधिकार किसी को नहीं है और इस समुदाय के साथ पहले जो भेदभाव हुए हैं उसके लिए किसी को माफ नहीं किया जाएगा. हालांकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में डाल दिया था.

आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाना अपराध है और इसके लिए दस साल तक की सजा या फिर आजीवन कारावास दिया जा सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने धारा 377 को खत्म कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद समलैंगिक और ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन इन लोगों का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है. अभी भी इस समुदाय के लोगों को साथ रहने या फिर शादी करने और फिर शादी का रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कानूनी संघर्ष करना पड़ रहा है.

पिछले साल सितंबर में ऐसे ही एक मामले में केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष दायर उस याचिका का विरोध किया, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम 1956 के तहत विवाह करने वाले समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों को मान्यता देने की मांग की गई है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकारी पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा कि समलैंगिक विवाह की अवधारणा को भारतीय संस्कृति या भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है. उनका तर्क था कि कानूनी आधार पर महिला और पुरुष विवाहों को ही मान्यता दी गई है. हालांकि मामले की सुनवाई कर रहे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीएन पटेल का कहना था कि इस तरह की याचिका पर खुले दिमाग से विचार किया जाना चाहिए. चीफ जस्टिस ने कहा, "इस मामले में कानून की स्थिति भिन्न हो सकती है लेकिन दुनिया भर में तमाम बदलाव हो रहे हैं और उस परिप्रेक्ष्य में भी विचार करने की जरूरत है.”

दरअसल, 2018 में नवतेज सिंह जौहर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 का जो फैसला दिया था उसमें आपसी सहमति से की गई समलैंगिक गतिविधियों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखना था. कानूनी तौर पर इसकी यह व्याख्या भी की जा रही है कि इस आधार पर समलैंगिक विवाह को मंजूरी नहीं दी जा सकती. दिल्ली हाईकोर्ट में समलैंगिक विवाह के अधिकारों को मान्यता देने की मांग वाली याचिका की सुनवाई के दौरान ही सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट के सामने यह बात रखी. यह याचिका एलजीबीटी समुदाय के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से दाखिल की गई है. हालांकि इस मामले में हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को सलाह दी है कि पहले वे अपने विवाह का रजिस्ट्रेशन कराएं और यदि ऐसा करने से इनकार किया जाता है तो कोर्ट में इसकी शिकायत करें.

जनहित याचिका दाखिल करने वालों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद समलैंगिक शादियों के रजिस्ट्रेशन में कई तरह की दिक्कतें आ रही हैं और प्रशासनिक स्तर पर रजिस्ट्रेशन करने में हीला-हवाली की जाती है. भारत में समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं है, इसलिए धारा 377 को गैरकानूनी घोषित करने के बावजूद कुछ समलैंगिक जोड़े अपने विवाह के पंजीकरण के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे ही कई समलैंगिक जोड़ों की याचिकाएं इस समय दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित हैं. इस मामले में न्यायालय ने केंद्र से जवाब भी मांगा है.

विशेष विवाह अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करने वाली एक ऐसी ही याचिका केरल हाईकोर्ट के समक्ष भी लंबित है. यह याचिका निकेश और सोनू की तरफ से दायर की गई थी जो केरल में समलैंगिक विवाह करने वाला पहला जोड़ा है. इन लोगों ने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के प्रावधानों को चुनौती देते हुए कहा था कि उनको समलैंगिक विवाह का पंजीकरण कराने की अनुमति नहीं दी गई है.

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