1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

'साफ नहीं है अल कायदा में जवाहिरी की हैसियत'

२५ जून २०११

जर्मन अखबारों में अयमान अल जवाहिरी का अल कायदा का नेता बनने की खबर छाई रही. अफगानिस्तान में विस्थापित लोगों की संख्या पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट और जगतसिंहपुर में किसानों के संघर्ष ने जर्मन मीडिया का ध्यान खींचा.

https://p.dw.com/p/11jPj
तस्वीर: AP

सप्ताह का सबसे अहम समाचार रहा, उनसठ साल के अयमान अल जवाहिरी को अल कायदा का नया प्रमुख बनाया जाना. अब तक ओसामा के सहायक रहे जवाहिरी को अल कायदा का दिमाग माना जाता है. ज्युडडॉयचे त्साइटुंग लिखता है

सत्तर के दशक में ही मिस्र में वह नए आतंकी गुट इजिप्शियन इस्लामिक जिहाद में शामिल हो गया था. इसी गुट ने उन्नीस सौ इक्यासी में तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर अल सदात की हत्या की थी. उस समय मेडिसीन पढ़ रहा युवा छात्र जवाहिरी तीन साल के लिए जेल गया और फिर सऊदी अरब से होता हुआ पाकिस्तान आया. उसने फिर बिन लादेन के साथ मिल कर गैर मुसलमानों के खिलाफ मोर्चा खोलने की ठानी. नए अमीर को जिहाद के लिए जिस अनुभव की जरूरत है, वह उसके पास काफी है. अगर संगठन के पुराने नियम लागू हैं तो जवाहिरी को तुरंत अपने सहायक की घोषणा करनी होगी. इसकी जरूरत इसलिए भी है ताकि प्रमुख के पकड़े जाने या मारे जाने की स्थिति में गुट का कोई नेतृत्व कर सके.

बर्लिन से प्रकाशित बर्लिनर त्साइटुंग का कहना है कि आतंकवाद के जानकार अल जवाहिरी को 11 सितंबर के हमलों का मास्टर माइंड मानते हैं. साल 2000 में अपनी किताब पैगंबर के झंडे तले शूरवीर में जवाहिरी ने अमेरिका और इस्राएल में आत्मघाती हमलों के जरिए ढेर सारे आम लोगों की जान लेने की वकालत की है ताकि पश्चिमी दुनिया में अधिकतम आतंक फैल सके.

जिहादियों में और खास तौर पर यमन से संचालित होने वाले अल कायदा की फिलहाल सबसे ताकतवर शाखा एकाप में इस तरह की रणनीति विवादों से परे नहीं है. एकाप सबसे पहले अरब देशों में जिहाद करना चाहता है ताकि वहां इस्लामी ताकतें सत्ता में आ सकें. इसलिए उन्हें नए नेता की बातें ज्यादा पसंद नहीं आएंगी. हालांकि अमेरिका, इस्राएल या पश्चिमी यूरोप में आतंकी हमला कर अल जवाहिरी अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है.

Flash-Galerie Syrien Assad Unterstützer
तस्वीर: picture alliance/dpa

यह भी साफ नहीं है कि जवाहिरी का अपने साथियों पर कितना प्रभाव है. फ्रांकफुर्टर अलगमाइने त्साइटुंग लिखता है कि एक ओर तो बिन लादेन की चमक उस पर है, दूसरी तरफ अल कायदा के महत्वपूर्ण अधिकारी और आतंकी हमलों की योजना बनाने वाले लोग जवाहिरी से एक पीढ़ी छोटे है. उनपर हिंदूकुश में अमेरिकियों के खिलाफ लड़ाई का असर है, कुछ ग्वांतानामो जेल में रह चुके हैं. इसके विपरीत जवाहिरी पिछले दस साल छुपा हुआ है. वह 25 साल से अपने देश नहीं गया है.

अल कायदा प्रमुख के लिए सबसे बड़ी चुनौती दरअसल अरब देशों का यथार्थ है. वहां अब क्रांति हो रही है, जिसका वह आह्वान करता रहा है, और वह भी उसके बिना कुछ किए. उसके सबसे कट्टर दुश्मन हुस्नी मुबारक को शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता से हटा दिया गया है, और अदालत में खड़ा कर दिया गया है. साल के आरंभ से जवाहिरी अपने संदेशों के जरिए विद्रोह की गाड़ी पर सवार होने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही. ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया और यमन में उसने विद्रोहियों से तब तक कुर्बानी देने की अपील की जब तक पश्चिम समर्थक और भ्रष्ट नेता हट न जाएं और उनकी जगह पर शरिया से चलने वाली न्यायपूर्ण सत्ता न आ जाए. यह यहां तक कि मिस्र का मुस्लिम ब्रदरहुड भी नहीं चाहता. लीबिया में उसने विद्रोहियों से अपील की है कि वे न केवल गद्दाफी को हटाएं बल्कि नाटो को भी. लेकिन विद्रोहियों की उम्मीदें इसी नाटो पर टिकी हुई है.

संयुक्त राष्ट्र की नई सालाना रिपोर्ट के मुताबिक करीब 19 लाख अफगान पाकिस्तान में रह रहे हैं. सिर्फ खैबर पख्तूनख्वाह में ही 14 लाख अफगान रहते हैं. इस इलाके में तालिबान की पकड़ मजबूत है. दो साल पहले पाकिस्तान ने इन इलाकों से कट्टरपंथियों को खदेड़ने के लिए सेना भेजी थी. तब से आत्मघाती हमलावर बार बार सैन्य ठिकानों और पुलिस पर हमला कर रहे हैं. दैनिक टागेस्श्पीगेल लिखता है

अफगानिस्तान के शरणार्थी यहां अपने को इसके बावजूद अफगानिस्तान के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित समझते हैं. पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में से एक अवामी नेशनल लीग कोशिश कर रही है कि इनमें से अधिकतर खुद लौट जाएं. पाकिस्तान उन्हें बिना कारण भगा नहीं सकता. संयुक्त राष्ट्र और दाता देशों के दबाव के कारण इन अवांछित शरणार्थियों को पाकिस्तान ने 2013 तक शरण दी है.

Flash-Galerie Indien Windkraft
तस्वीर: R. Hörig/DW

भारत में उड़ीसा के जगतसिंहपुर में किसानों को जमीन अधिग्रहण की लड़ाई में करीब करीब जीत हासिल हो गई है. भुवनेश्वर में सरकार ने अनिश्चित समय के लिए जमीनों के अधिग्रहण पर रोक लगा दी है. बर्लिन से प्रकाशित वामपंथी दैनिक नौएस डॉयचलांड टिप्पणी करता है.

राज्य सरकार जगतसिंहपुर में केंद्र सरकार के आशीर्वाद से, लेकिन वहां की जनता की इच्छा के बगैर 3000 हैक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करना चाहती है. इस जमीन पर दक्षिण कोरियाई कंपनी पॉस्को का उद्योग बनेगा. 12 अरब डॉलर का यह उद्योग भारत के लिए बड़ा विदेशी निवेश होता. इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी देकर सरकार निवेशकों को यह बताना चाहती है कि उदारीकरण के बाद उसके दरवाजे विदेशी निवेश के लिए कितने खुले हुए हैं. इस अधिग्रहण पर अमल पुलिस को करना था लेकिन कई गांवों के लोगों ने इसका शांतिपूर्ण विरोध किया. सरकार की अंतरिम रियायत से विवाद समाप्त नहीं हुआ है. पुलिस कार्रवाई रोक दी गई है लेकिन अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि भविष्य में किसी तरह का विरोध प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

संकलन: प्रिया एसेलबॉर्न/आभा एम

संपादन: महेश झा

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी