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समाज

सामाजिक जवाबदेही से कब तक बचेंगी सरकारें?

शिवप्रसाद जोशी
२८ जनवरी २०१९

राजस्थान सरकार ने सामाजिक जवाबदेही कानून लाने की घोषणा की है जिससे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जनभागीदारी का मुद्दा फिर से गरमा गया.

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Kongress Leiter  Ashok Gehlot und  Sachin Pilot Pressekonferenz
तस्वीर: IANS

देश में आरटीआई आंदोलन के प्रणेताओं में एक अरुणा राय, मानवाधिकार कार्यकर्ता निखिल डे और मजदूर किसान शक्ति संगठन के नुमायंदों के साथ एक विस्तृत बैठक में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जोर देकर कहा कि उनकी सरकार सुनवाई का अधिकार देगी और ऐसा करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य होगा. गहलोत का कहना है कि राज्य में गारंटीड डिलीवरी ऑफ पब्लिक सर्विसेज ऐक्ट पहले से लागू है, नए कानून को उसमें मिलाकर एक मजबूत और व्यापक प्रभाव वाले कानून की नींव रखी जाएगी. इस प्रस्तावित बिल का नाम होगा राजस्थान भागीदारी, जवाबदेही और सामाजिक अंकेक्षण बिल. अरुणा राय और उनकी टीम ने इस बिल का एक ड्राफ्ट भी राज्य सरकार को सौंपा है.

इसके तहत एक लोक शिकायत निवारण आयोग और उसके साथ शिकायत निवारण अधिकारी या प्राधिकरण भी बनाया जाएगा. शिकायतकर्ताओं की समस्याओं के निराकरण के अलावा ये प्राधिकरण, अपवादों को छोड़कर उन्हें 25 हजार रुपये तक का मुआवजा भी दे सकता है. ड्राफ्ट बिल के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का यह अधिकार है कि उन्हें एक निश्चित समयसीमा के भीतर निर्धारित मात्रा और गुणवत्ता में चिह्नित सेवाएं मुहैया कराई जाएं और उनकी शिकायतों का निवारण किया जाए.

सरकारी अधिकारी निस्तारित सेवाओं का पूरा ब्योरा और जॉब चार्ट भी जारी करेगा जिसमें इस बात का उल्लेख होगा कि किस अधिकारी को कौनसी जिम्मेदारी दी गई और उस जिम्मेदारी का निर्वहन वो कितनी तत्परता और कुशलता से कर पाया. सुनवाई के अधिकार के तहत बूथ स्तर पर सार्वजनिक सुनवाई होगी जिसमें शिकायतकर्ता अपनी बात रख सकेंगें.

इससे सरकार के भीतर आंतरिक प्रक्रिया को दुरुस्त करने वाली क्षैतिज जवाबदेही में भी उल्लेखनीय सकारात्मक बदलाव आ सकता है. कानून बनाएंगे कह देना तो ठीक है, लेकिन इसके ईमानदार पालन की बात सबसे महत्त्वपूर्ण है. अगर नवगठित कांग्रेस सरकार कुछ महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में महज भुनाने के लिए, इस मुद्दे का इस्तेमाल न करे तो ये पहल इस मामले में निर्णायक और दूरगामी साबित हो सकती है कि इससे अन्य राज्य सरकारें देरसबेर बाध्य होंगी और केंद्र सरकार पर भी ऐसे ही जनसुलभ कानून को अमल में लाने का दबाव बढ़ेगा. ध्यान रहे कि राजस्थान से ही सूचना के अधिकार का सूत्रपात हुआ था. लेकिन अरुणा राय जैसे एक्टिविस्टों के नए प्रयत्नों का वही हाल नहीं होना चाहिए जो लोकपाल की मांग को लेकर 2011-12 के लोकपाल आंदोलन का हुआ था.

लोकतांत्रिक पैमाने पर कमजोर होता भारत

ब्यूरोक्रेसी "लौह दीवार” की अपनी प्रवृत्ति से बाज आए और मंत्री और नेता निजी स्वार्थों से ऊपर उठें तो लोक सेवाओं में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है, अन्यथा कानून तो कितना भी आकर्षक, प्रभावशाली और सख्त बना लीजिए, अगर उसके अमल में ईमानदारी और तार्किकता न हो तो वो बेअसर ही रहेगा. एक बार बन जाने के बाद, कानून को आगे चलकर अपनी अपनी सुविधा से तोड़ने मरोड़ने के कुअभ्यासों से भी बचने की जरूरत है.

सूचना का अधिकार कानून के साथ हो रहे खिलवाड़ से सब वाकिफ हैं. जवाबदेही वाले कानून की यह गति न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए एक्टिविस्टों को लगातार सक्रिय रहना होगा और सरकारों को ईमानदार. जरा भी ढिलाई से इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में बिखराव आ सकता है. बुनियादी शर्त यही है कि मंत्री और अधिकारी सेवाओं में ढिलाई की शिकायतों से खौफ न खाएं, बल्कि ईमानदारी से अपनी गल्तियां स्वीकारें और उन्हें समय रहते दूर करें. लब्बोलुआब यह कि सरकार को जनता के लिए चौबीसों घंटे उपस्थित रहना होगा. क्योंकि यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी गई सरकार का लक्ष्य होना चाहिए. हालांकि यह एक आदर्श सी स्थिति है लेकिन व्यवहारिक राजनीति ऐसे आदर्शों के बिना ज्यादा लंबा नहीं खिंच सकती, यह भी ध्यान रखना चाहिए.

सामाजिक जवाबदेही कानून से अन्य जनसुलभ कानूनों का रास्ता प्रशस्त होगा. सूचना का अधिकार कानून, सामाजिक जवाबदेही कानून, भ्रष्टाचार निवारण कानून, ये सब लोकपाल की शाखाओं की तरह ही हैं. देश को एक निर्भय और मजबूत लोकपाल का इंतजार है. और तो और 12 राजयों में लोकायुक्त हैं ही नहीं, जबकि 16 जनवरी 2014 को लागू हुए लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 में साफ लिखा गया है कि हर राज्य को अपने यहां लोकायुक्त बनाना होगा. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों से जवाब तलब किया था. हालांकि कर्नाटक जैसे अपवाद छोड़ दें तो जिन राज्यों में लोकायुक्त हैं, वे कई कारणों से शिथिल और प्रभावहीन ही दिखते हैं.

कुछ दिन पहले ही शीर्ष अदालत ने केंद्र द्वारा गठित सर्च कमेटी को लोकपाल की तलाश का काम फरवरी तक पूरा करने के लिए कहा है. भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर ही बीजेपी 2014 में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई थी. आज विडंबना देखिए कि नोटबंदी पश्चात की आर्थिक दुश्वारियों, बैंकों की विफलताओं, विवादों, बैंकों के भगौड़ों, जांच एजेंसियों की आंतरिक उठापटक से लेकर रफाएल जैसे सौदों तक, सरकार को जवाब देना भारी पड़ रहा है.

लोकपाल और लोकायुक्तों के साथ साथ सामाजिक जवाबदेही कानून आ जाए और सुनवाई का अधिकार मिल सके तो सरकारें, सही मायनों में जनकेंद्रित और जनसुलभ कहलाएंगीं. वरना तो लोकतंत्र, पांच साल की चुनावी रस्म-अदायगी के बाद सत्ता की छीनाझपटी, बेरुखी, ऐश्वर्य और उसके भ्रष्टाचार का अड्डा बन कर रह जाएगा. 

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