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सिद्धांतों में सिमटते गांधी

१ अक्टूबर २०१२

सिर्फ चौंसठ साल बीते हैं. भारत से लेकर पूरी दुनिया उस क्रांति को भूल गई है, जो बिना किसी हथियार के कामयाब थी. सीरिया, लीबिया, अफगानिस्तान, उड़ीसा और छत्तीसगढ़. महात्मा गांधी के आदर्श और नसीहतें तार तार हो गई लगती हैं.

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तस्वीर: AP

महात्मा गांधी के पास अहिंसा, सत्याग्रह और स्वराज नाम के तीन हथियार थे. लेकिन पूरी दुनिया उनकी अहिंसा रूपी हथियार से परास्त हो गई. किसी ने सोचा भी न था कि जो काम बड़ी बड़ी फौज नहीं कर सकती, वह बिना हथियारों के कैसे हो सकता है. अमेरिकी विद्वान थ्योडोर रोजाक इस बात को बड़ी बारीकी से समझाते हैं, "लोग अहिंसा को हफ्ते भर आजमाते हैं. जब यह काम नहीं करता तो हिंसा पर लौट जाते हैं. पर हिंसा भी शताब्दियों से नाकाम साबित होता आया है."

युद्ध किसी भी देश को मजबूत नहीं करता, उसे सिर्फ कमजोर कर सकता है क्योंकि इसमें संसाधन और मनुष्यों की बलि चढ़ती है. गांधीजी 100 साल पहले इस बात को समझ चुके थे. उनका पूरा सिद्धांत और उनकी लड़ाई हिंसा के खिलाफ खड़ी हुई और उन्हें शानदार कामयाबी मिली. अमेरिका में गांधीवाद पढ़ा रहे प्रोफेसर माइकल नागलर ने 2011 में गांधीजी के बारे में अपने विचार कुछ यूं रखे, "तब विनाश का बोलबाला था और उनके अंदर इस चलन के खिलाफ जाने का साहस था. यही नहीं, उन्होंने प्राचीन समझबूझ को नए मायने दिए और उन्हें ऐसे रूप में ढाला कि आधुनिक युग के लोग भी उन्हें समझ सकें, इस्तेमाल कर सकें. मेरे ख्याल से उन्होंने अहिंसा के रूप में महानतम खोज की. यह लोगों को जोड़ने का ऐसा तरीका है, जिसे कहीं भी, कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है."

लेकिन आज उनके 143वें जन्मदिन के अवसर पर देखा जाए, तो दुनिया उन्हें भूल गई लगती है. अमेरिका की लड़ाई इराक से निकलने के बाद भी अफगानिस्तान में पसरी हुई है. लीबिया और ट्यूनीशिया के विद्रोहों को उसका समर्थन था, सीरिया हर बीतते दिन के साथ नर्क में जा रहा है और हिंसक संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहा है. थ्योडोर रोजाक की बात सही लगती है.

Indien Mahatma Gandhi
जवाहरलाल नेहरू के साथ महात्मा गांधीतस्वीर: AP

भारत लौटने के 10 साल के अंदर गांधीजी को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पहली कामयाबी मिली, उनकी शर्त पर. भले ही भारत में आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन के समर्थक भी रहे हों लेकिन गांधी ने जनमानस को हथियारों के खिलाफ करने में कामयाबी हासिल कर ली थी. लॉस एंजिलिस यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर विनय लाल कहते हैं कि गांधीजी अहिंसा को साधन बनाने वाले पहले शख्स नहीं थे लेकिन इसे आंदोलन की शक्ल देने वाले पहले शख्स जरूर थे, "उन्होंने हिंसा का मनोविज्ञान समझ लिया था." उनका कहना है कि यही वजह है कि "मानव इतिहास में गांधी हमेशा प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि उन्होंने अहिंसा को एक नीति और एक विश्वास के तौर पर लोगों के सामने ला खड़ा किया."

गांधीजी की इस सोच ने उन्हें दुनिया में सबसे अलग खड़ा कर दिया. भारत की आज भी जो पहचान है, उसमें गांधी सबसे ऊपर हैं. रिचर्ड एटनबरो की गांधी इतिहास की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में गिनी जाती है. सैकड़ों देशों में महात्मा गांधी के नाम पर सड़कें हैं और गांधी की प्रेरणा से कोई नेल्सन मंडेला, कोई मार्टिन लूथर किंग और कोई आंग सांग सू-ची बना.

गांधी ने सत्याग्रह और स्वराज की मांगें पूरा करने के लिए अनशन को अपना हथियार बनाया. हाल के दिनों में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों ने अनशन की कोशिश की. तो क्या हजारे जैसे लोगों को गांधी से जोड़ कर देखा जा सकता है. जाने माने गांधीवादी अनुपम मिश्रा मानते हैं, नहीं, "मैं ऐसा कह सकता हूं. इसमें किसी की व्यक्तिगत निंदा वाली बात नहीं है. मोटे तौर पर ये है कि एक चीज समाज के सामने उपलब्ध है. अब उसका उपयोग मैं कैसे करता हूं ये मुझ पर निर्भर करता है. शस्त्र भारी है लेकिन अगर मैं उसे उठा नहीं पाता तो मैं लड़खड़ा कर गिर जाता हूं. मुझे अपने को उसके योग्य बनाना पड़ता है. हमने ज्यादातर आंदोलनों को लड़खड़ाकर गिरते देखा है."

गांधीजी खुद नहीं चाहते थे कि उनके आदर्शों को लोग गांधीवाद के नाम से जानें. पर अफसोस ऐसा हुआ भी नहीं. किताबों और भाषणों में गांधीजी की खूब पूछ है. जिस टोपी को उन्होंने खुद कभी नहीं पहना, वह अब गांधी टोपी हो गई है लेकिन गांधी की बात लोग भूल गए हैं. प्रोफेसर नागलर इसके लिए मौजूदा व्यवस्था को दोषी मानते हैं, "गांधी के बताए रास्ते पर चलने से आज भी हमें सुनहरा भविष्य मिलेगा. हमारे सामने यह विकल्प है लेकिन दुर्भाग्य से हमारा औद्योगिक लोकतंत्र लोगों को गुमराह कर रहा है. उन्हें पता ही नहीं है कि वे हिंसा और अहिंसा के बीच चुन सकते हैं."

रिपोर्टः अनवर जे अशरफ

संपादनः महेश झा

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