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गोधरा ने ली गांधी की जगह

१८ फ़रवरी २०१२

2002 में गोधरा कांड के साथ शुरू हुए दंगों में एक हजार से ज्यादा लोगों की भेंट चढ़ी है. पिछले साल मामले को लेकर फैसले में दंगों के लिए खास अदालत ने 31 आरोपियों को सजा दी, लेकिन अब भी कुछ सवालों के जवाब बाकी हैं.

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धर्मनिरपेक्षता पर चोटतस्वीर: AP

गुजरात की हिंसा में कई पुलिस कर्मचारी, मुस्लिम और हिंदू समुदाय के लोग मारे गए. सैकड़ों दरगाहों, मस्जिदों और मदरसों को गिरा दिया गया, और तीन चर्चों को भी आग लगा दी गई. मुस्लिम समुदायों पर हमला अहमदाबाद से शुरू हुआ. इनमें से सबसे बड़ा हमला गुलबर्ग सोसाइटी की इमारत पर हुआ जहां कांग्रेस के सांसद अहसान जाफरी रहते थे. दंगों के दौरान उन पर तेल छि़ड़क कर जला दिया गया.

2011 मार्च में फास्ट ट्रैक कोर्ट के दंगों पर फैसले के बाद भी आज तक अहसान जाफरी की मौत को लेकर कोई फैसला नहीं किया गया है. उनकी पत्नी जकिया जाफरी का कहना है कि उन्होंने उस वक्त शहर के पुलिस प्रमुख, सीबीआई और कई अधिकारियों को फोन किए जिसके बाद भी उनकी मदद के लिए कोई नहीं पहुंचा.

Narendra Modi Indien Ministerpräsident Gujarat
मोदी पर अब भी सवालतस्वीर: AP

नेताओं ने भड़काई आग?

जकिया जाफरी की शिकायतों को आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक खास जांच टीम एसआईटी बनाई, जिसने हाल में अपनी जांच पूरी की. नतीजा सार्वजनिक तो नहीं किया गया लेकिन रिपोर्टें हैं कि सबूतों और पुलिस अधिकारियों के तर्कों के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दंगों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सका है.

2002 में गुजरात पुलिस के खुफिया विभाग के प्रमुख आरबी श्रीकुमार ने डॉयचे वेले के साथ खास बातचीत में कहा, "यह बात तो लगभग तय है कि जबसे 2008 में एसआईटी का गठन हुआ, तब से वह मोदी के पक्ष में काम कर रही है." दंगों के बाद जांच के दौरान श्रीकुमार ने अपने अनुभवों और अपने साथ काम कर रहे अधिकारियों से मिले सबूतों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट को कई बार इस मामले में जानकारी भी दी. उनका कहना है कि गुलबर्ग सोसाइटी मामले में जकिया जाफरी और सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सेलतवाड ने मोदी पर कुछ आरोप लगाए हैं. जाफरी ने मोदी पर दंगों की साजिश रचने का आरोप लगाया है. यह केवल अहमदाबाद के लिए नहीं, बल्कि पूरे गुजरात में दंगा कराने का आरोप है.

वोट बैंक को लुभाने की कोशिश

श्रीकुमार के मुताबिक, "27 फरवरी को गोधरा में ट्रेन हमले में हुई बर्बादी के बाद जब मुख्यमंत्री मोदी वापस लौटे तो राजनीतिक एजेंडा यह था कि गोधरा कांड का इस्तेमाल वोट लाने के लिए किया जाए." श्रीकुमार के मुताबिक इस मकसद के लिए गांधीनगर में मोदी और दिल्ली में उस वक्त के केंद्रीय गृह मंत्री और बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एलान किया कि गोधरा कांड पाकिस्तान की साजिश है. जबकि किसी भी एफआईआर या पुलिस जांच से इस बात का कोई सबूत नहीं था.

Myanmar Tempel
कहां गई गंगा जमनी तहजीबतस्वीर: AP

इसके अलावा गोधरा कांड में मारे गए लोगों के शवों को अहमदाबाद लाया गया और वहां उन्हें प्रदर्शित किया गया. श्रीकुमार का कहना है कि यह साफ है कि ऐसा लोगों को भड़काने के उद्देश्य से किया गया. अहमदाबाद शहर में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच संबंध पहले से ही तनावपूर्ण थे. दंगों ने इन दोनों के इन संबंधों को बिलकुल ही खत्म कर दिया है.

सिस्टम खराब नहीं

आखिरकार 2011 में गुजरात दंगों के लिए खास अदालत ने 31 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी है. लेकिन अब भी गुलबर्ग सोसाइटी मामलों सहित पूरे दंगों के पीछे राजनीतिक साजिश के आरोप पर सवालिया निशान लगे हुए हैं. श्रीकुमार के अदालत को सौंपे गए सबूतों के आधार पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिल पाया है लेकिन भारतीय अदालतों के पास मौजूत सबूत उन्हें सजा दिलाने के लिए अब भी काफी नहीं माने जा रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय प्रेस ने अदालत के फैसले पर खुशी तो जताई है लेकिन न्यू यॉर्क टाइम्स जैसे अखबार अब भी यही पूछ रहे हैं कि गांधी के पैदा हुए राज्य में ऐसा कैसे हो गया. 2002 में दंगों के बारे में ब्रिटेन के अखबार गार्डियन ने लिखा है कि दंगों ने गुजरात के मुस्लिम धरोहर को पूरी तरह खत्म कर दिया है.

Unruhen in Gujarat 2002
क्या पुलिस पर भी था दबावतस्वीर: picture-alliance/dpa

कहां तक धर्मनिरपेक्ष है भारत?

अमेरिकी अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट ने भी फैसलों पर खुशी तो जताई है लेकिन उसका कहना है कि मुख्यमंत्री मोदी ने दंगों को रोकने के लिए अपनी तरफ से कुछ नहीं किया. जहां तक 2002 और उसके बाद भारत के न्यायिक ढांचे के खत्म होने की बात है, श्रीकुमार का कहना है कि भारत में न्याय के लिए मूलभूत ढांचे मौजूद हैं, "सिस्टम में कोई परेशानी नहीं है. पूरे गुजरात में सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व सूरत में है. दंगों के दौरान वहां केवल सात लोग मारे गए. जिन पुलिस अधिकारियों ने दंगों को रोकने की कोशिश नहीं की, वे केवल अपने स्वार्थ के लिए ऐसा कर रहे थे."

गुजरात कांड पर ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय और भारतीय शोधकर्ताओं का मानना है कि यह 1946-1947 में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद का सबसे बड़े दंगे थे जिन्होंने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता पर फिर सवाल उठा दिए हैं. अब भी दुनिया भर में पत्रकार और बुद्धिजीवी हादसे के विश्लेषण में लगे हुए हैं. इनमें से कई मानते हैं कि समाज में आर्थिक असमानताओं के शिकार गरीब लोग सांप्रदायिक भाषणों से भड़क जाते हैं और धर्म के बहाने हिंसा में हिस्सा लेते हैं. गुजरात में भी कुछ ऐसा ही हुआ. कई समृद्ध मुस्लिम परिवारों और उनके उद्योगों पर हमला किया गया, उनके दुकानों और घरों को लूटा गया.

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः अनवर जे अशरफ

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