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दंगों में हाथ सेंकती पार्टियां और सरकारें

१८ फ़रवरी २०१२

जलते मकान, दुकानें, खाक होती संपत्ति, रोजगार और सड़कों पर ईंटों, बोतलों, जलते टायरों में बिखरा आम जन जीवन.. भारत ने आजादी से अब तक कई सांप्रदायिक दंगे झेले हैं. जिनमें 1984, 1989, 1992 और 2002 का गुजरात भुलाए नहीं भूलते.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

सबसे अहम सवाल है कि क्या सरकार कोई कदम उठाने में विफल रही या सरकार के ही तत्वों ने इन दंगों को हवा दी. दस साल पहले 2002 के दंगों की बात करें तो कई बातें इशारा करती हैं कि पुलिस और सरकार ने दंगों को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए.

1984, नई दिल्ली

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद नई दिल्ली सहित पूरे भारत में सिखों के खिलाफ जो लहर फैली वह आज भी रोंगटे खड़े करती है. वरिष्ठ पत्रकार और नई दुनिया में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के अध्यक्ष पद्मश्री अभय छजलानी इस मामले में कहते हैं, "इन दंगों में कांग्रेस का हाथ था कहने से ज्यादा कांग्रेस का उन्माद था." वहीं जर्मनी से भारतीय राजनीतिक पार्टियों और उनकी नीतियों पर नजर रखने वाले वरिष्ठ प्रोफेसर डॉक्टर योआखिम बेट्स (जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल एंड एरिया स्टडीज, हैम्बर्ग) का कहना है, "यह एक राष्ट्रीय संकट की स्थिति थी." प्रत्यक्ष रूप से देखा जाए तो दंगों के समय केंद्र और पंजाब दोनों में ही कांग्रेस की सरकार थी. इस पूरी घटना का शिरोमणि अकाली दल को फायदा हुआ. केंद्र में हालांकि ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. वहां राजीव गांधी के युवा और नई विचारधारा के प्रधानमंत्री होने के कारण कांग्रेस को फायदा ही हुआ. अभय छजलानी का मानना है, "ये दंगे और इनमें कांग्रेस के कुछ नेताओं का शामिल होना तात्कालिक प्रतिक्रिया थी. अनियंत्रित उन्माद था वह. जिस रात राजीव गांधी सत्ता में आए उन्होंने इसे काबू करने की पूरी कोशिश की." हालांकि राजीव गांधी का एक बयान आज भी विवादों में घिरा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो आस पास हलचल होती ही है.

Indien Proteste Aktivisten Ausschreitungen 1992
तस्वीर: picture-alliance/dpa

वैसे तो पंजाब में शुरू से ही शिरोमणि अकाली दल का वर्चस्व रहा है लेकिन उस समय विभाजित अकाली दल का डिफेक्टो फायदा कांग्रेस को हुआ क्योंकि वही राज्य में दूसरी मजबूत पार्टी थी. 1984 के बाद केंद्र में कांग्रेस को मंडल कमीशन और आरक्षण के मुद्दे पर सबसे ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा.

1989, भागलपुर

शाहबानो मामले में विवाद में पड़ी कांग्रेस सरकार ने हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी को अयोध्या में मंदिर के शिलान्यास की मंजूरी दे दी. बस इसके बाद राष्ट्रव्यापी स्तर पर शिलान्यास शुरू हुआ. विश्व हिंदू परिषद ने सभी हिंदुओं से अयोध्या मंदिर के लिए ईंटें दान करने की अपील की. इसी तरह के एक जुलूस के दौरान बिहार के भागलपुर में दंगे शुरू हुए, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोगों की जान गई. उस समय बिहार और केंद्र दोनों में कांग्रेस की सरकार थी. इस घटना का फायदा उठा कर लालू प्रसाद यादव ने अपना वोट बैंक अगले 15 साल के लिए सुनिश्चित कर लिया. इसके बाद नीतीश कुमार ने हालात बदले और विकास के मुद्दों पर अपनी सीट पक्की की. वैसे तो वह बीजेपी के साथ गठबंधन में हैं लेकिन सांप्रदायिक मामलों पर वह बहुत सावधानी से काम लेते हैं.

10 Jahre Pogrome in Gujarat
तस्वीर: AP

अयोध्या और गुजरात

क्या दंगों से पार्टियां फायदा उठाती हैं या किसी तरह का राजनैतिक लाभ लेने के लिए वे कोई कदम उठाती हैं. इस बारे में छजलानी कहते हैं, "जिन पार्टियों के प्रशासन काल में दंगे होते हैं वे उससे अपने को बचाने की कोशिश करते हैं इसलिए वास्तविकता क्या है यह जानकारी 100 प्रतिशत लोगों के पास नहीं आती. जिस पार्टी के कार्यकाल में दंगा नहीं हुआ वह यह बताने की कोशिश करती है कि दंगा हमारे कार्यकाल में नहीं हुआ, हमारी लापरवाही की वजह से नहीं हुआ और जिनके समय में हुआ है वह इसकी सफाई देते रहते हैं. दंगों का फायदा वह उठाते हैं जो सत्ता में नहीं होते." प्रोफेसर बेट्स कहते हैं, "पार्टियां चाहती हैं कि दो दलों के बीच में विवाद भड़के. खास कर बाबरी मस्जिद के मामले में तो पार्टियों को विशेष फायदा हो सकता था. इससे उनका वोट बैंक बढ़ता. वहां कई जातियां, धर्म, संप्रदाय, अलग अलग सामाजिक और आर्थिक वर्ग के लोग हैं."

हिंदू चरमपंथ?

1992 से 2002 के बीच भारत में हुए बड़े सांप्रदायिक दंगे अयोध्या और बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े रहे. कई जानकार 2002 के गुजरात दंगों को हिंदू चरमपंथ का उदय बताते हैं. वहीं छजलानी कहते हैं, "यह कट्टरता तो काफी पहले से थी. कम ज्यादा होती रही. हालांकि बीजेपी कोशिश कर रही है कि वह सभी समुदायों और संप्रदायों को साथ लेकर चले लेकिन उसके पास सफल नेतृत्व की कमी है."

बेट्स मानते हैं, "बीजेपी को अयोध्या, गोधरा और गुजरात दंगों के मामले में ज्यादा दिन फायदा नहीं हुआ क्योंकि उनका मतदाता उच्च मध्यम वर्ग का था. उसे मुश्किल हुई देश के कई हिस्सों में अपना पैर जमाने में. उन्होंने कई बार कोशिश की कि धार्मिक आधार पर समाज में बंटवारा किया जाए और अल्पसंख्यकों को अलग करे. लेकिन अगर यह अलगाव बड़ा नहीं हो तो यह संभव नहीं है. जैसे उत्तर प्रदेश में आपको मुस्लिम वोट की जरूरत है वहां आप इस वर्ग को अलग हटा कर कुछ नहीं कर सकते."

कुल मिला कर 1992 और 2002 के दंगों का फायदा बीजेपी को कम समय के लिए हुआ. जहां वह विकास कर पाई उन्हीं राज्यों में टिकी हुई है. छजलानी कहते हैं कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी का मुख्यमंत्री बनना बीजेपी की सफलता नहीं है, "वह उनकी निजी सफलता है और कांग्रेस की निजी असफलता क्योंकि उनके पास मोदी के तोड़ का कोई नेता नहीं हैं."

रिपोर्टः आभा मोंढे

संपादनः अनवर जे अशरफ

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